आज फिर देर रात हो गयीलेकिन आप नहीं आयेकल ही तो आपने कहा थाआज जल्दी आ जाऊंगाजानती हूं मैंझूठा था वह आश्वासन .......पता नहीं क्योंफिर भी एक आस दिखती हैंहर बार हीआपके झूठे आश्वासन में........हाँ रोज की तरह आज भीमैं खूद को भूलने की कोशिश कर रही हूँआपकी यादों के सहारेरोज की तरह सुबह हो जाएऔर आपको बाय कहते ही देख लूं..........आज भी वहीं दिवार सामने है मेरेजिसमे तस्वीर आपकी दिखती हैजो अब धूंधली पड़ रही हैजो आपके वफा काअंजाम है या शायदबढ़ती उम्र का एहसास........वही बिस्तर भी हैजिसपर मैं रोज की तरहआज भी तन्हा हूँअब तो इसे भी लत लग गई हैमेरी तन्हाई की..............दिवार में लगा पेंट भीकुरेदने से मिटनें लगा हैमेरे नाखून भी जैसेखण्डहर से हो गये हैआसुओं की धार सेतकिए का रंग भी हल्का होने लगा हैसजन लेकिन तुम नहीं आयेतुम नहीं आये ।।
शुक्रवार, 10 सितंबर 2010
लेकिन तुम नहीं आये---( कविता)-----मिथिलेश दुबे
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5 comments:
बहुत ख़ूबसूरत तस्वीर है और साथ ही साथ सुन्दर एहसास के साथ भावपूर्ण और लाजवाब रचना के लिए बहुत बहुत बधाई!
'बहुत सुन्दर'लिख दूँ यहाँ?
प्रतीक्षा तो किसी ने भी की तकियों के रंग सबके बदरंग हुए होंगे आंसुओं से.
प्रेयसी के,स्त्री के हिस्से में हमेशा प्रतीक्षा ही आई? क्या पटा यही कसक उस ओर भी रही हो.'उसकी' भी कोई मजबूरी,बंधन,जिम्मेदारी रही हो.
किन्तु...राधा और याधोधरा सी प्रतीक्षा किसी की ना हो.
वही पीड़ा ले के आई है ये रचना भी.कैसे कह दूँ अच्छी लगी.दर्द मन से कब अच्छा लगा है किसी को? झूठे हैं सभी.
मार्मिक अभिव्यक्ति। अरे तुम इतनी मार्मिक रचनायें क्यों लिखने लगे?। बहुत बहुत आशीर्वाद।
दिवार में लगा पेंट भी
कुरेदने से मिटनें लगा है
मेरे नाखून भी जैसे
खण्डहर से हो गये है
कमाल का बिम्ब!! सुन्दर कविता. सबसे ज़्यादा असर छोड़ा है कविता में "आप" के सम्बोधन ने. औपचारिक होते रिश्तों का पहला कदम... सुन्दर.
चांद फिर निकला मगर तुम न आए
जला फिर मेरा दिल मगर तुम न आए
.......पेयिंग गेस्ट से :)
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