सहती न जानें कितने जुल्मकरती ग्रहणपुरुष कुंठाओ कोहर रात ही होती है हमबिस्तरन जानें कितनों के साथ.............कभी उसे कचरा कहा जाताकभी समाज की गंदगीकभी कलंक कहा गयाकभी बाई प्रोडक्टतो कभी सभ्य सफेदपोशसमाज का गटर.........आखिर हो भी क्यों नाकसूर है उसका कि वहइन सफेद पोशों के वासना कोकाम कल्पनाओं कोकहीं अंधेरे में ले जाकरलील जाती हैखूद को बेचा करती हैघंटो और मिनटों के हिसाब से...........जहाँ इसी समाज मेंनारी को सृजना कहा जाता हैपूज्य कहा जाता हैमाता कहा जाता हैदेवी कहा जाता हैउसी समाज कीशोषित, उपेक्षितउत्पीडित, दमितकुल्टा है वहक्योंकि दोष है उसकावेश्या है वह।
सोमवार, 13 सितंबर 2010
वेश्या है वह---------(कविता)--- मिथिलेश दुबे
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6 comments:
बक़्हुत मार्मिक अभिव्यक्ति। आशीर्वाद। निशब्द हूँ बस।
सनाख़्वाने-तक़दीस-ए-मशरिक़ कहां है - साहिर॥
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