होता है सबेरा आज भी पर,
क्यूँ न चहकते विहंग हैं
क्यूँ न सुनाई देती, बैलों की घंटियाँ
क्यूँ न किसानो में वो उमंग है
क्यूँ आशाएं खो रही रवि के प्रकाश में
शरद-शोभा क्यूँ नहीं छाती अब आकाश में
सौहार्द की सुवासित, सुरभि जाने कहाँ खो गई
क्यूँ न खिलते पुष्प अब कोमल कास में
क्यूँ न फुदकते खरगोस अब
क्यूँ न दीखते पिक या शिखी
क्यूँ सुना पड़ा है गावं का कूप
एक अरसे से कोई पनहारन भी न दिखी
क्यूँ सजते उज्ज्वल स्वप्न अब
क्यूँ मिट गई नव-ह्रदय से हर्ष तरंग
होता है सबेरा आज भी पर,
क्यूँ न चहकते विहंग हैं.....
मंगलवार, 7 सितंबर 2010
होता है सबेरा आज भी {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"
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1 comments:
वाह! बहुत खूब लिखा है आपने ! लाजवाब रचना!
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