हे मनुष्य ! तू क्यूॅं हुआ अज्ञेयानन्द में विक्षित
क्यूॅ भारी है, ज्ञान पर, अज्ञान का तिमिर दीप्त
चल पडा जिस पथ पर तू , वह है अगम
तू रहेगा सदा विजयी, मत पाल सिकंदर सा भ्रम
सूर्य भी एक सा नभ पर, नही रहता निरंतर
ले जान तू , लोभ और मृत्यु में न कोई अंतर
हैं मिथ्या सभी, देखता तू जो स्वप्न सजीले
मत बहक, देख कर, तितलियों के पर रंगीले
अज्ञेयानन्द की लालसा, लेगी तुझे छल
एक लहर में ढह जाएगा, तेरा रेत-महल
अभी समय है, सम्भल जा नही बाद में पछताएगा
निज अज्ञानता पर रोएगा, आॅसू बहाएगा......
बुधवार, 8 सितंबर 2010
अज्ञेय आनंद {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"
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1 comments:
बहुत सही पोस्ट।
देसिल बयना-खाने को लाई नहीं, मुँह पोछने को मिठाई!, “मनोज” पर, ... रोचक, मज़ेदार,...!
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