रविवार, 29 अगस्त 2010
पुरुष वेश्याएं , आधुनिकता की नयी उपज--------मिथिलेश दुबे
शनिवार, 28 अगस्त 2010
एक कविता "भारतेंदु की" सन्तोष कुमार "प्यासा"
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
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निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्लै है सोय।
लाख उपाय अनेक यों, भले करे किन कोय।।
इक भाषा इक जीव इक, मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
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और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय
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भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
"कोई हो ऐसा" {कविता} ---वंदना गुप्ता
कोई हो ऐसा जो
हमारे रूह की
अंतरतम गहराइयों में छिपी
हमारे मन की हर
गहराई को जाने
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
सिर्फ़ हमें चाहे
हमारे अन्दर छिपे
उस अंतर्मन को चाहे
जहाँ किसी की पैठ न हो
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
हमें जाने हमें पहचाने
हमारे हर दर्द को
हम तक पहुँचने से पहले
उसके हर अहसास से
गुजर जाए
कभी कभी हम चाहते हैं कि
कोई हो ऐसा जो
बिना कहे हमारी हर बात जाने
हर बात समझे
जहाँ शब्द भी खामोश हो जायें
सिर्फ़ वो सुने और समझे
इस मन के गहरे सागर में
उठती हर हिलोर को
हर तूफ़ान को
और बिना बोले
बिना कुछ कहे वो
हमें हम से चुरा ले
हमें हम से ज्यादा जान ले
हमें हम से ज्यादा चाहे
कभी कभी हम चाहते हैं
कोई हो ऐसा.......कोई हो ऐसा
-
बुधवार, 25 अगस्त 2010
कभी-कभी सोचती हू.....(कविता)--सुमन 'मीत
जाने क्या है जाने क्या नही
बहुत है मगर फिर भी कुछ नही
तुम हो मै हू और ये धरा
फिर भी जी है भरा भरा
कभी जो सोचू तो ये पाऊ
मन है बावरा कैसे समझाऊ
कि न मैं हू न हो तुम
बस कुछ है तन्हा सा गुम.......................!
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
रक्षा बंधन
हिन्दू श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) के पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई का बहन के प्रति प्यार का प्रतीक है। इस दिन बहन अपने भाइयों की कलाई में राखी बांधती है और उनकी दीर्घायु व प्रसन्नता के लिए प्रार्थना करती हैं ताकि विपत्ति के दौरान वे अपनी बहन की रक्षा कर सकें। बदले में भाई, अपनी बहनों की हर प्रकार के अहित से रक्षा करने का वचन उपहार के रूप में देते हैं। इन राखियों के बीच शुभ भावनाओं की पवित्र भावना होती है। यह त्यौहार मुख्यत: उत्तर भारत में मनाया जाता है।
रक्षा बंधन का इतिहास हिंदू पुराण कथाओं में है। हिंदू पुराण कथाओं के अनुसार, महाभारत में, (जो कि एक महान भारतीय महाकाव्य है) पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने भगवान कृष्ण की कलाई से बहते खून (श्री कृष्ण ने भूल से खुद को जख्मी कर दिया था) को रोकने के लिए अपनी साड़ी का किनारा फाड़ कर बांधा था। इस प्रकार उन दोनो के बीच भाई और बहन का बंधन विकसित हुआ था, तथा श्री कृष्ण ने उसकी रक्षा करने का वचन दिया था।
यह जीवन की प्रगति और मैत्री की ओर ले जाने वाला एकता का एक बड़ा पवित्र कवित्त है। रक्षा का अर्थ है बचाव, और मध्यकालीन भारत में जहां कुछ स्थानों पर, महिलाएं असुरक्षित महसूस करती थी, वे पुरूषों को अपना भाई मानते हुए उनकी कलाई पर राखी बांधती थी। इस प्रकार राखी भाई और बहन के बीच प्यार के बंधन को मज़बूत बनाती है, तथा इस भावनात्मक बंधन को पुनर्जीवित करती है। इस दिन ब्राह्मण अपने पवित्र जनेऊ बदलते हैं और एक बार पुन: धर्मग्रन्थों के अध्ययन के प्रति स्वयं को समर्पित करते हैं।
हिन्दी साहित्य मंच परिवार की ओर से सभी भाई बहनों को रक्षा बंधन पर्व की बहुत-बहुत बधाई ।
सोमवार, 23 अगस्त 2010
त्रिपदा अगीत ------डाo श्याम गुप्त.
.अंधेरों की परवाह कोई,
न करे, दीप जलाता जाए;
राह भूले को जो दिखाए |
२.
सिद्धि प्रसिद्धि सफलताएं हैं,
जीवन में लाती हैं खुशियाँ;
पर सच्चा सुख यही नहीं है|
३.
चमचों के मजे देख हमने ,
आस्था को किनारे रख दिया ;
दिया क्यों जलाएं हमीं भला|
४.
जग में खुशियाँ उनसे ही हैं,
हसीन चेहरे खिलते फूल;
हंसते रहते गुलशन गुलशन |
५.
मस्त हैं सब अपने ही घरों में ,
कौन गलियों की पुकार सुने;
दीप मंदिर में जले कैसे ?
रविवार, 22 अगस्त 2010
तेरा धर्म महान कि मेरा धर्म---------मिथिलेश दुबे
मची है लोगों मे देखो कैसी घमासान
बन पड़ा है देखो कैसा माहौल
लग रहे हैं एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप
क्या हो जायेगा अगर मेरा धर्म नीचा
तेरा धर्म महान
आखिर पिसता तो है इन सबके बीच इंसान
जहाँ खाने के लिए रोटी नहीं
पहनने के लिए वस्त्र नहीं
रहने के लिए घर नहीं
वहां का मुद्दा बन पड़ा है
तेरा धर्म महान कि मेरा धर्म महान,,,,,,,,,,,
जहाँ फैला है भ्रष्टाचार चहूं ओर
जहाँ नेता बन बैठा है भाग्य बिधाता
जहाँ अशिक्षा हावी है शिक्षा पर
जहाँ देखने वालों की भी गिनती है अंधो में
वहाँ मुद्दा बन पड़ा है
तेरा धर्म महान कि मेरा धर्म .......
जहां मां तोड देती है दम प्रसव के दौरान
जहाँ बच्चे शिकार होते हैं कुपोषण का
जहाँ लडकियो को अब भी समझा जाता है बोझ
वहाँ मुद्दा बन पड़ा है
तेरा धर्म महान कि मेरा धर्म .....
शनिवार, 21 अगस्त 2010
अरे हम बंदी किसके थे जो हमें कोई आजाद करेगा हमने तो उन्हें केवल व्यापर के लिए चंद समय और जगह दी थी.. Ankur Mishra "YUGAL"
चलिए हम जरा विचार करते है की हमने , हमारे भारत के लिए इन ६४ वर्षों में कितने महान कार्य और कितने सराहनीय कार्य किये है, जिनसे हमारा और हमारे मुल्क का विकाश हुआ है!
जी हा हम कह रहे है अब ६४ वर्ष जो अब बीत चुके है जो बहुत ज्यादा होते है, आजकल तो एक मनुष्य की उम्र भी नहीं होती इतनी ....
फिर भी हम उनसे पीछे क्यों है, क्या हमारे पास संसाधनों की कमी है ,क्या हमारे पास तकनीक की कमी है ,क्या हमारे पास दिमाग की कमी है ,क्या हमारे पास शक्ति की कमी है???नहीं हम किसी में भी काम नहीं है !हम एक अरब से ऊपर है जो महान शक्ति का प्रतीक है ,विश्व के सर्वोच्च कोटि के डॉक्टर ,इन्जीनिअर,प्रयोग्शाश्त्री यही से होते है जो महान दिमाग के उत्पत्ति के सूचक है ,विश्व के महान तकनिकी संस्थानों के नायक भारतीय है जो महान तकनीक का सूचक है जब हमारे पास इतना सब है तो हम उनसे पीछे क्यों है !
और छोडिये आज जिस कम्पूटर पर सारा विश्व चलता है उस कम्पूटर को चलने वाला"शून्य" हमारी ही देन है,इस विश्व को पढना -लिखना किसने सिखाया है -हमने ,तभी तो हम एक समय पर विश्व गुरु थे और आज नहीं है इसका कारण क्या है !!!!!!!
क्या आपको नहीं लगता की केवल हमारे विचारो के कारण ही हम विश्व से पीछे है एक समय पर हम विश्व गुरु थे और आज हम सैकड़ो में भी नहीं आते !
एक समय पर हमारे पास वो अस्त्र - शश्त्र थे की हम पूरी दुनिया को हिला सकते थे और आप अपनों से ही हिल रहे है ! इस दुनिया को हमने ही उस श्रृंखला में लाके खड़ा किया है की वो अपने अधिकारों को ले सके हाँ ये सत्य है की उसने हमें छल से घायल कर दिया था पर यह तो सोचनीय है की ६४ वर्ष में तो अच्छा से अच्छा घाव सही हो जाता है फिर हम तो केवल चोटिल थे अरे आप और छोड़िये अपने पडोसी "जापान" को देखिये वो तो मृत्यु के दरवाजे से निकला था पर आज पूर्ण रूपेण विकसित है हाँ वहा के लोगो में अभी तक घाव है पर उन्होंने अपने देश के घाव को सही कर दिया !
अरे हम उसी को आदर्श बना कर चल सकते है आखिर हमारा अच्चा दोस्त है वो! वहां भ्रष्टाचार नहीं होता ,वहा के नेता अपने देश का धन दुसरे देशो में जमा नहीं करते ,वहां के नागरिक दुसरे को पतन पर नहीं बल्कि खुद को उन्नति के मार्ग ले जाने का प्रयास करते है ,वहा वर्ष में हजारो चुनाव नहीं होते,अरे वहा हर उस मार्ग को चुनते है जिससे आज के आवश्यक तथ्य "समय और धन" की बचत हो सके और उसका उपयोग अन्य किसी कार्य में कर सके !आखिर ये संभव कैसे है --- केवल और केवल उनके विचारो के कारण उनके विचार उनके देश के साथ है वो देश को सोचकर कोई कदम उठाते है !क्या वो कुछ अलग करते है ,क्या वो खाना नहीं खाते ,क्या वो सोते नहीं है ,क्या वो लड़ते नहीं है ??????
जी नहीं ये सब उनके यहाँ भी होता है अरे ये तो दैनिक जीवन के क्रिया कलाप है सब कोई करता है !!!!!!!! हाँ पर ये तथ्य है की वो केवल इन्ही कारणों से सबसे आगे है क्योकि वो सभी कार्य एक अलग तरीके से करते है ;उनका कार्य को करने का हर तरीका अलग होता है !अद्वितीय होता है!!!!!!!!!!
जी हा ये सब हम भी कर सकते है और सारे तरीके हमारे पास भी है क्योकि हमारे पूर्वजो से ही इन्होने लिए है.....लेकिन आज समस्या यही है की अह हम खुद को भूल चुके है और इसी का परिणाम हमारा देश और हम भुगत रहे है ,और हमी कहते है हम आजाद नहीं है """अरे हम बंदी किसके थे जो हमें कोई आजाद करेगा हमने तो उन्हें केवल व्यापर के लिए चंद समय और जगह दी थी पर ये "सत्य" है की हमारे विचारो को कुलीन इसी समय ने किया है !!!!!! हाँ यदि हमने अभी से ही अपने विचारो पर विचार करना सुरु कर दिया तो विश्व की कोई ताकत हमसे आँगे नहीं हो सकती....
शमशान-----{कविता}----- वंदना गुप्ता
चारों तरफ़ फैली है शांति ही शांति
वीरान होकर भी आबाद है जो
अपने कहलाने वालों के अहसास से दूर है जो
नीरसता ही नीरसता है उस ओर
फिर भी मिलता है सुकून उस ओर
ले चल ऐ खुदा मुझे वहां
दुनिया के लिए कहलाता है जो शमशान यहाँ
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
सपना .........................श्यामल सुमन
पूरे जब न होते सपने, बार-बार मिलकर समझाया।
सपनों के बदले अब दिन में, तारे देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
पढ़-लिखकर जब उम्र हुई तो, अवसर हाथ नहीं आया।
अपनों से दुत्कार मिली और, उनका साथ नहीं पाया।
सपन दिखाया जो बचपन में, आँखें दिखा रहा है।
प्रतिभा को प्रभुता के आगे, झुकना सिखा रहा है।
अवसर छिन जाने पर चेहरा, अपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
ग्रह-गोचर का चक्कर है यह, पंडितजी ने बतलाया।
दान-पुण्य और यज्ञ-हवन का, मर्म सभी को समझाया।
शांत नहीं होना था ग्रह को, हैं अशांत घर वाले अब।
नए फकीरों की तलाश में, सच से विमुख हुए हैं सब।
बेबस होकर घर में मंत्र का, जपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
रोटी जिसको नहीं मयस्सर, क्यों सिखलाते योगासन?
सुंदर चहरे, बड़े बाल का, क्यों दिखलाते विज्ञापन?
नियम तोड़ते, वही सुमन को, क्यों सिखलाते अनुशासन?
सच में झूठ, झूठ में सच का, क्यों करते हैं प्रतिपादन?
जनहित से विपरीत ख़बर का, छपना देख रहा हूँ।
सपना हुआ न अपना फिर भी, सपना देख रहा हूँ।।
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
रक्तदान मे डेरा सच्चा सौदा बेमिसाल ......(लेख)..............मोनिका गुप्ता
ये कोई कल्पना नही हकीकत है और यह बात सामने आई सिरसा के डेरा सच्चा सौदा मे जहाँ कल यानि 8 अगस्त रविवार को संत महाराज गुरमीत राम रहीम जी के जन्म माह के पावन उपलक्ष मे विशाल रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया. लगभग एक लाख से ज्यादा भक्तो ने ना सिर्फ इसमे हिस्सा लिया बलिक 43,732 यूनिट रक्त दान देकर एक नया इतिहास रच दिया.
डेरा के प्रवक्ता पवन इंसा ने विस्तार से बताया कि अलग अलग राज्यो से 90 टीम रक्त लेने पहुँची और दो लाख स्कवेयर फीट मे बने सच खंड हाल मे 2500 पलंग लगाए गए. 7000 सेवादार, 50 चिकित्सक, 500 पैरामेडिकल स्टाफ के साथ साथ 200 काउंटर रजिस्ट्रेशन के लिए बनाए गए इतना ही नही जबरदस्त हूजूम देखते हुए सुरक्षा के कडे इंतजाम भी किए गए ताकि कोई अनहोनी होने पर निबटा जा सके.
सुबह ठीक सात बजे कैम्प का शुभारम्भ हुआ जोकि रात को दस बजे तक चला. लोगो मे रक्तदान के प्रति इतना जुनून इतना जुडाव किसी आश्चर्य से कम नही था.
वैसे ऐसा पहली बार नही हुआ. 7 दिसम्बर 2003 को शाह सतनाम जी धाम मे 15,432 यूनिट रक्त एकत्र किया गया था. 10 अक्टूबर 2004 को राजस्थान के गुरुसर मोडिया मे 17,921 यूनिट रक्त एकत्र किया गया. रक्तदान शिविर के लिए पहले से ही इनका नाम लिम्का बुक और गिनीज बुक आफ वर्ड रिकार्ड मे दर्ज है और कोई दो राय नही कि कल हुए इस विशाल रक्तदान कैम्प ने पिछ्ले सारे रिकार्ड तोड दिए है. इंडियन सोसाएटी आफ वर्ड ब्लड ट्रांसफ्यूजन एंड एम्यूनोहाईमोटोलाजी संस्था द्वारा भी प्रंशसा पत्र जारी किया गया है.
गौरतलब है कि डेरा सिर्फ रक्तदान मे ही नही बलिक समाज सेवा के अन्य क्षेत्रो मे और भी कई कीर्तिमान स्थापित कर चुका है जैसेकि पौधे लगाने मे इसने नया विश्व रिकार्ड रिकार्ड बनाया और तो और डेरा सच्चा सौदा की ग्रीन एस वेलफेयर के जांबाज अपने मे ही उदाहरण है किसी भी तरह की आपदा का मुँह तोड जवाब देने को तैयार रहते हैं. हाल ही मे आई बाढ मे इन लोगो का काम सराहनीय रहा.
इतना जोश, इतना उत्साह काबिले तारीफ है. अगर यही उत्साह आने वाले समय मे लोगो मे बरकरार रहा तो हमारा भारत देश हर क्षेत्र मे सबसे आगे होगा और दूसरे देश इसका अनुकरण करेगें.
बुधवार, 11 अगस्त 2010
मैं तो बस ....(कविता)
न कोई भगवान है
मैं तो बस इन्सान हूँ
इंसानियत मेरी पहचान है..
न कभी मंदिर गया मैं
न कभी गुरूद्वारे में
मैं तो बस देखता हूँ
सबमें ही भगवान है .
न किसी से इर्ष्या हो
न किसी से बैर हो
मैं तो बस ये चाहता हूँ
सबमें ख़ुशी और प्रेम हो
पढता हूँ मैं खबर
शहर कत्लेआम की
हो दुखी नम आँखों से
क्या खुदा , क्या राम है..
आज मैं मैं कर रहा
कल खाक में मिल जाऊंगा
सांसे टूट जाएगी एक दिन
क्या साथ मेरे जायेगा ...
आओ हम ये दूरी मिटा दें
न कोई हो दुर्भावना
राम पूजे मुसलमान
हिन्दू खुदा के साथ हो
मैं किसी को न कहूँगा
तुम कभी न छोडो धरम
राम , रहमत के नाम पर
तुम मिटा दो फासला ..
मंगलवार, 10 अगस्त 2010
कभी सोचती हू...........(कविता)................ सुमन 'मीत'
बहुत है मगर फिर भी कुछ नही
तुम हो मै हू और ये धरा
फिर भी जी है भरा भरा
कभी जो सोचू तो ये पाऊ
मन है बावरा कैसे समझाऊ
कि न मैं हू न हो तुम
बस कुछ है तन्हा सा गुम.......................!!
डायरी {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"
मै हूँ किसी की ज़िन्दगी, किसी की शायरी
कुछ लोग समझते है मुझे अपनी प्रेमिका
मुझसे चलती है कई लोगों की आजीविका
कवी,लेखक,. प्रेमी हो या विद्वान, सभी मुझे अपनाते है
निज ह्रदय के गूढ़ राज मुझमे छाप जाते है
मै महज एक शौक नहीं, मै हूँ वेदना किसी के उर की
मुझमे लिखी है दास्ताँ किसी के तसव्वुर की
मुझमे मिल सकते है किसी दार्शनिक के हितकारी विचार
मुझमे अंकित अक्षर बन सकते है, प्रलयकारी तलवार
मुझमे क्षमता है, मै बदल सकती हूँ समाज
मुझसे कुछ छुपा नहीं, मै हूँ राज की हमराज..........
सोमवार, 9 अगस्त 2010
कितने पास कितने दूर ...---(लेख) मोनिका गुप्ता
कल ही मेरे एक मित्र खुशी खुशी बता रहे थे कि उन्होनें वेब केम लिया है और अब वो भारत मे बैठे बैठे ही अपने विदेश मे रहने वालो से रिश्तेदारो को देख भी सकते है. सही है फायदे तो बहुत ही है इस बात से तो इंकार नही है क्योकि एक समय ऐसा था कि समय की कमी की वजह से हमारा अपने रिश्तेदारो से मिलना तो दूर बात तक करने का भी समय नही होता था पर धन्यवाद इस टेकनीक का ... आज इसकी वजह से सारे दोस्त , रिश्तेदार किसी ना किसी साईट पर मिल जाते है वहाँ ना उनकी नई पुरानी तस्वीरे देख सकते हैं बलिक उन्हे जन्मदिन या सालगिरह पर बधाई भी दे सकते हैं, बात कर सकते है . यानि अब किसी को उलहाना भी नही रहा कि आप आते नही या मिलते नही ... वगैरहा ... कुल मिला कर हम पास ही तो हो रहे है दूर तो नही..... पर यकीनन हम अपनो से दूर हो रहे हैं अपने ही परिवार से कट रहे हैं ... यही देखने मे आता है कि हम नेट पर सारा दिन बातो मे निकाल देंग़े पर अगर घर मे कोई महेमान आ जाए तो उठना और उससे बात करना मुसीबत से कम नही लगता ....घर के बडे इंतजार करते रहेंग़े कि चलो खाना तो साथ ही खाएगे .... पर जनाब... खाना भी वही बैठ कर खाया जाता है जहाँ कम्प्यूटर रखा होता है ..अब कोई करे तो क्या करे ...
ये बहुत अच्छी बात है कि हम नई टेकनोलोजी के साथ कदम मिला कर चल रहे हैं लेकिन अपनो से दूर भी जाना भी सही नही है ..नई दुनिया से जुडना .. नई बाते सीखना उतना ही जरुरी है जितना अपने परिवार को वक्त देना.. तो आप नई दुनिया से तो जुडे ही रहिए बहुत कुछ है सीखने को... पर अपनो का भी ध्यान आपने ही रखना है .. है ना...
रविवार, 8 अगस्त 2010
उड़ गया फुर से परिंदा डाल से...(ग़ज़ल)...............राजेन्द्र स्वर्णकार
लीचियों के खोल में हैं फ़ालसे
लफ़्ज़ तो इंसानियत मा'लूम है
है मगर परहेज़ इस्तेमाल से
ना ग़ुलामी दिल से फ़िर भी जा सकी
हो गए आज़ाद बेशक़ जाल से
भूल कर सिद्धांत समझौता किया
अब हरिश्चंदर ने नटवरलाल से
खोखली चिपकी है चेहरों पर हंसी
हैं मगर अंदर बहुत बेहाल से
ज़िंदगी में ना दुआएं पा सके
अहले-दौलत भी हैं वो कंगाल से
सोचता था…ज़िंदगी क्या चीज़ है
उड़ गया फुर से परिंदा डाल से
इंक़लाब अंज़ाम दे आवाम क्या
ज़िंदगी उलझी है रोटी-दाल से
शाइरी करते अदब से दूर हैं
चल रहे राजेन्द्र टेढ़ी चाल से
शनिवार, 7 अगस्त 2010
मिलते ही मैं गले नहीं लगता.....ग़ज़ल....manoshi ji
और मैं अच्छा हुआ जनाब तो क्या
है ही क्या मुश्तेख़ाक से बढ़ कर
आदमी का है ये रुआब तो क्या
उम्र बीती उन आँखों को पढ़ते
इक पहेली सी है किताब तो क्या
मैं जो जुगनु हूँ गर तो क्या कम हूँ
कोई है गर जो आफ़ताब तो क्या
ज़िंदगी ही लुटा दी जिस के लिये
माँगता है वही हिसाब तो क्या
मिलते ही मैं गले नहीं लगता
फिर किसी को लगा खराब तो क्या
आ गया जो सलीका-ए-इश्क अब
’दोस्त’ मरकर मिला सवाब तो क्या
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
थम सा गया है वक्त....(गजल)...................नीरज गोस्वामी
होगी तलाशे इत्र ये मछली बज़ार में
निकले तलाशने जो वफ़ा आप प्यार में
चल तो रहा है फिर भी मुझे ये गुमाँ हुआ
थम सा गया है वक्त तेरे इन्तजार में
जब भी तुम्हारी याद ने हौले से आ छुआ
कुछ राग छिड़ गये मेरे मन के सितार में
किस्मत कभी तो पलटेंगे नेता गरीब की
कितनों की उम्र कट गयी इस एतबार में
दुश्वारियां हयात की सब भूल भाल कर
मुमकिन नहीं है डूबना तेरे खुमार में
ये तितलियों के रक्स ये महकी हुई हवा
लगता है तुम भी साथ हो अबके बहार में
वो जानते हैं खेल में होता है लुत्फ़ क्या
जिनको न कोई फर्क हुआ जीत हार में
अपनी तरफ से भी सदा पड़ताल कीजिये
यूँ ही यकीं करें न किसी इश्तिहार में
'नीरज' किसी के वास्ते खुद को निसार कर
खोया हुआ है किसलिये तू इफ्तिखार में
इफ्तिखार= मान, कीर्ति, विशिष्ठता, ख्य
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
हकीकत........................श्यामल सुमन
स्वतः अन्तर से जो फूटा उसे बस प्रेम से गाया
थी शब्दों की कभी किल्लत न भावों से वहाँ संगम,
दिशाओं और फिजाओं से कई शब्दों को चुन लाया
किया कोशिश कि सीखूँ मैं कला खुद को समझने की
कठिन है यक्ष-प्रश्नों सा है बारी अब उलझने की
घटा अज्ञान की मानस पटल पर छा गयी है यूँ,
बँधी आशा भुवन पर ज्ञान की बारिश बरसने की
बहुत मशहूर होने पर हुआ मगरूर मैं यारो
नहीं पूरे हुए सपने हुआ मजबूर मैं यारो
वो अपने बन गए जिनसे कभी रिश्ता नहीं लेकिन,
यही चक्कर था अपनों से हुआ हूँ दूर मैं यारो
अकेले रह नहीं सकते पड़ोसी की जरूरत है
अगर अच्छे मिलें तो मान लें गौहर की मूरत है
पड़ोसी के किसी भी हादसे को जानते हैं लोग,
सुबह अखबार में पढ़ते बनी अब ऐसी सूरत है
बिजलियाँ गिर रहीं घर पे न बिजली घर तलक आयी
बनाते घर हजारों जो उसी ने छत नहीं पायी
है कैसा दौर मँहगीं मुर्गियाँ हैं आदमी से अब,
करे मेहनत उसी ने पेट भर रोटी नहीं खायी
हकीकत से दुखी प्रायः यही जीवन-कहानी है
नहीं मुस्कान चेहरों पे उसी की ये निशानी है
चमन में है कभी पतझड़ कभी ऋतुराज आयेगा,
सुमन की दोस्ती काँटों से तो सदियों पुरानी है
बुधवार, 4 अगस्त 2010
आठवीं रचना..............लघु कथा............... ( डा श्याम गुप्त )
काव्य गोष्ठियों में उन्हें सराहा जाता; तब उन्हें लगता कि वे भी कवि हैं तथा कालिदास, तुलसी, निराला के क्रम की कड़ी तो हैं ही | पर यश भी अभी कहाँ मिल पाया था | बस एक दैनिक अखवार ने समीक्षा छापी थी -आधी अधूरी | एक समीक्षा दो पन्ने वाले नवोदित अखवार ने स्थान भरने को छापदी थी | कुछ काव्य संग्रहों में सहयोग राशि के विकल्प पर कवितायें प्रकाशित हुईं | पुस्तकों के लोकार्पण भी कराये; आगुन्तुकों के चाय-पान में व कवियों के पत्र-पुष्प समर्पण व आने-जाने के खर्च में जेब ढीली ही हुई | अधिकतर रचनाएँ रिश्तेदारों , मित्रों व कवियों में ही वितरित हो गईं | कुछ विभिन्न हिन्दी संस्थानों को भेज दी गईं जिनका कोई प्रत्युत्तर आजतक नहीं मिला | जबकि हुडदंग -हुल्लड़ वाली कवितायेँ, नेताओं पर कटाक्ष वाली फूहड़ हास्य-कविताओं वाले मंचीय कवि मंच पर, दूरदर्शन पर, केबुल आदि पर अपना सिक्का जमाने के अतिरिक्त आर्थिक लाभ से भी भरे-पूरे रहते हैं |
किसी कवि मित्र के साथ वे प्रोत्साहन की आशा में नगर के हिन्दी संस्थान भी गए | अध्यक्ष जी बड़ी विनम्रता से मिले , बोले, पुस्तकें तो आजकल सभी छपा लेते हैं, पर पढ़ता व खरीदता कौन है? संस्थान की लिखी पुस्तकें भी कहाँ बिकतीं हैं | हिन्दी के साथ यही तो होरहा है, कवि अधिक हैं पाठक कम | स्कूलों में पुस्तकों व विषयों के बोझ से कवितायें पढ़ाने-पढ़ने का समय किसे है | कालिज के छात्र अंग्रेज़ी व चटपटे नाविलों के दीवाने हैं , तो बच्चे हेरी-पौटर जैसी अयथार्थ कहानियों के | युवा व प्रौढ़ वर्ग कमाने की आपाधापी में शेयर व स्टाक मार्केट के चक्कर में , इकोनोमिक टाइम्स, अंग्रेज़ी अखवार, इलेक्ट्रोनिक मीडिया के फेर में पड़े हैं | थोड़े बहुत हिन्दी पढ़ने वाले हैं वे चटपटी कहानियां व टाइम पास कथाओं को पढ़कर फेंक देने में लगे हैं | काव्य, कविता ,साहित्य आदि पढ़ने का समय व समझने की ललक है ही कहाँ |
पुस्तक का शीर्षक पढ़कर अध्यक्ष जी व्यंग्य मुद्रा में बोले, " काव्य रस रंग " -शीर्षक अच्छा है पर शीर्षक देखकर इसे खोलेगा ही कौन | अरे ! आजकल तो दमदार शीर्षक चलते हैं , जैसे- 'शादी मेरे बाप की', ईश्वर कहीं नहीं है' , नेताजी की गप्पें ' , राज-दरवारी आदि चौंकाने वाले शीर्षक हों तो इंटेरेस्ट उत्पन्न हो |
वे अपना सा मुंह लेकर लौट आये | तबसे वे यद्यपि लगातार लिख रहे हैं , पर स्वांत -सुखाय; किसी अन्य से छपवाने या प्रकाशन के फेर में न पड़ने का निर्णय ले चुके हैं | वे स्वयं की एक संस्था खोलेंगे | सहयोग से पत्रिका भी निकालेंगे एवं अपनी पुस्तकें भी प्रकाशित करायेंगे|
पर वे सोचते हैं कि वे सक्षम हैं, कोई जिम्मेदारी नहीं, आर्थिक लाभ की भी मजबूरी नहीं है | पर जो नवोदित युवा लोग हैं व अन्य साहित्यकार हैं जो साहित्य व हिन्दी को ही लक्ष्य बनाकर ,इसकी सेवा में ही जीवन अर्पण करना चाहते हैं उनका क्या? और कैसे चलेगा ! और स्वयं साहित्य का क्या ?
रविवार, 1 अगस्त 2010
दिल में ऐसे उतर गया कोई.............(ग़ज़ल)................मनोशी.
अपने दिल ही से डर गया कोई
आँख में अब तलक है परछाईं
दिल में ऐसे उतर गया कोई
सबकी ख़्वाहिश को रख के ज़िंदा फिर
ख़ामुशी से लो मर गया कोई
जो भी लौटा तबाह ही लौटा
फिर से लेकिन उधर गया कोई
"दोस्त" कैसे बदल गया देखो
मोजज़ा ये भी कर गया कोई