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गुरुवार, 8 जुलाई 2010

कविता : मुझे बढ़ना ही होगा... ...............जोगिन्द्र रोहिल्ला ....

मुझे बढ़ना ही होगा :
डगमग डगमग राहों पे ,
मैं चला ही जा रहा हूँ ...
कुछ ऊँची कुछ नीची राहों पे
मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ ...

मैं चला था कल अकेला ,
कोई आया कोई चला गया ,
अंतर्द्वंद से कोई भरा रहा ,पर
मैं बढ़ता ही चला गया ...

पीछे मुड के देखा जब ,अब
कोई साथी ना दिख पाया
देखा साथ में कौन है ....
बस अपने को ही मैंने पाया ,
आगे बढ़ने की सोची तो
मंजिल एक नई चुनी
सोचा चलना चाहिए अब
सोचा बढ़ना चाहिए अब

हाँ ,
डगमग डगमग राहों पे ,
मुझे बढ़ना ही होगा ...
कुछ ऊँची कुछ नीची राहों पे
मुझे बढ़ना ही होगा ...

7 comments:

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

Jeevan badhne ka naam.
Sundar bhav.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सुन्दर प्रेरक भाव

Mithilesh dubey ने कहा…

bahut hee umda aur prernadayak lagi aapki kavita, subhkamnayen

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

आशावादी सोच से प्रेरित कविता ...........

Unknown ने कहा…

bahut khub sundar rachan ........

बेनामी ने कहा…

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