खौफ का जो कर रहा व्यापार है
आदमी वो मानिये बीमार है
चार दिन की ज़िन्दगी में क्यूँ बता
तल्खियाँ हैं, दुश्मनी, तकरार है
जिस्म से चल कर रुके, जो जिस्म पर
उस सफ़र का नाम ही, अब प्यार है
दुश्मनों से बच गए, तो क्या हुआ
दोस्तों के हाथ में तलवार है
लुत्फ़ है जब राह अपनी हो अलग
लीक पर चलना, कहाँ दुश्वार है
ज़िन्दगी भरपूर जीने के लिए
ग़म, खुशी में फ़र्क ही बेकार है
बोल कर सच फि़र बना 'नीरज' बुरा
क्या करे आदत से वो लाचार है।
शनिवार, 29 मई 2010
लीक पर चलना, कहाँ दुश्वार है..? (गजल)..........नीरज गोस्वामी
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6 comments:
लुत्फ़ है जब राह अपनी हो अलग लीक पर चलना, कहाँ दुश्वार है...
बहुत खूब नीरज जी...
neeraj ji ki to baat hi nirali hai.........jo bhi kahte hain dil mein utarta chala jata hai...........behtreen, shandar,lajawaab .........har sher gazab ka hai.
काव्य संबंधी मेरी परिभाषा है-
"शब्दसत्ता भी होनी चाहिए।
अर्थवत्ता भी होनी चाहिए॥
काव्य है मात्र कल्पना ही नहीं-
बुद्धिमत्ता भी होनी चाहिए॥"
आपकी ग़ज़ल में तीनों तत्व संतुलित
रूप में विद्यमान हैं। बहुत ही सुन्दर
रचना है। बारंबार बधाई।
सद्भावी- डॉ० डंडा लखनवी
बेहतरीन ग़ज़ल है ... वाह !
पढ़ के नीरज को सुमन ये सोचता
हाल सुधरेंगे बहुत आसार है
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
लुत्फ़ है जब राह अपनी हो अलग
लीक पर चलना, कहाँ दुश्वार है
बिलकुल सही बात....लकीर पर तो हर कोई चल सकता है....नए रस्ते कोई बनाये तो बात हो....खूबसूरत रचना
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