डाल कर कुछ नीर की बूंदे अधर में
कर अकेला ही विदा अज्ञात सफ़र में
कुछ नेह मिश्रित अश्रु के कतरे बहाकर
संबंधों से अपने सब बंधन छूटाकर
डूबकर स्वजन क्षणिक विछोह पीर में
कुछ परम्परागत श्रद्धा सुमन करके अर्पित
धीरे -धीरे छवि तक तेरी भूल जायेंगे
आत्मीय भी नाम तेरा भूल जायेंगे
साथ केवल कर्म होंगे, माया न होगी
बस प्रतिक्रियायें जग की तेरे साथ होगी
फिर रिश्तों के सागर में मानव खोता क्यों है
जब एक न एक दिन तुझको चलना है
12 comments:
फिर रिश्तों के सागर में मानव खोता क्यों है
अपनी - परायी भावना लिए रोता क्यों है
यही तो स्वभाव है मानव का.....सब मालूम होते हुए भी मोह माया में पद रहता है.....बहुत अच्छी अभिव्यक्ति..
बहुत उम्दा रचना!
bahut achcha bas thodi lay ki kami akhri bhav to ati sundar the...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
जब एक दिन सबको चलना है ...
सब चला चली का मेला ...मगर इसे कौन समझना चाहे ...
जो उदित आज सूर्य है कल ढालना है ...
यही समझ जाए तो दुनिया से सब दुर्भावना मिट जाए ...!!
यथार्थ का बहुत ही सुन्दर चित्रण ……………………।सब जानते हैं मगर मानना नही चाहते।
bahut khub
http://kavyawani.blogspot.com
shekhar kumawat
जीवन की सच्चाई कही है आपने पर क्या करें हम सब छलावे में रहना चाहते हैं
waah waah waah...bas yahi shabd nikle padh ke... !!!
जीवन का सच है आपकी कविता में ...
sar ji ...lajwaab kavita ...
sir ji aapko pahle bhi padha hai bahut hi sandaar likhte hai aap .. ye kavita bhi usme se ek hai
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