जाने हिन्दू से हूँ या मुसलमान का
क्या मज़हब मेरा मैं किस ईमान का
ज्यादा कुछ मालूम नहीं खुद के बारे में
बस भेस लिए हूँ इक इंसान का
उसके घरों का मज़हब यह समझाया मुझे
मस्जिद अल्लाह की है मंदिर भगवान का
माना तलवारें तो चलो बेज़मीर ठहरी
मगर क्या हुआ ज़मीर इंसान का
और मुझे देखो दोनों ही जगाएं सुबह में
शोर मंदिर की घंटियों का अज़ान का
लिखोगे तो हम लफ्ज़ ही बनेगा फ़राज़
लेके देखो 'ह' हिन्दू से और 'म' मुसलमान का.
शुक्रवार, 5 मार्च 2010
जाने हिन्दू से हूँ या मुसलमान का------[कविता]------शामिख फ़राज़
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4 comments:
सुन्दर कविता के लिए आभार ।
मानवता दर्शाति बढ़िया रचना लगी शामिख भाई , बधाई ।
जाने हिन्दू से हूँ या मुसलमान का
क्या मज़हब मेरा मैं किस ईमान का
ज्यादा कुछ मालूम नहीं खुद के बारे में
बस भेस लिए हूँ इक इंसान का
वाह बहुत खूबसूरत पँक्तियाँ । यही नही हर पंक्ति दिल को छूती है। धन्यवाद।
BAhut hi Acchi Bat (HUM) ke bare main aachi jankari di hai aapne. dhanyawad.
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