आज कल जो भी दिखता है परेशान दिखता है,
वक्त ऐसा है बस इंसान ही नहीं दिखता है।
जहां देखो बस ऐतबार नहीं दिखता है,
इंसान कहता है बस प्यार नहीं मिलता है।
मालिक को मजदूर दिखता है, मजबूरी नहीं,
मजदूर को परिवार दिखता है पर प्यार नहीं मिलता है।
गांवों से लेकर शहरों तक इंकार ही दिखता है,
इकरार चाहिए तो वही अपना परिवार दिखता है।
जहां देखता हूं बस हर इंसान बेकरार दिखता है,
अकसर हर आदमी बस यही कहता है कि सब कुछ बिकता है।
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
अंर्तद्वंद....[कविता]......संदीप मिश्रा जी
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6 comments:
बिल्कुल सही बात लिखी है आपने कविता में । आज ऐसा ही है इंसान ।
आज कल जो भी दिखता है परेशान दिखता है,
वक्त ऐसा है बस इंसान ही नहीं दिखता है।
-बहुत बेहतरीन, वाह!!
जहाँ देखो परेशान बेहाल इंसान ...मगर यही जीने का हसला भी देते हैं ...
औरो का ग़म देखा तो अपना भूल गए ....!!
वाकई सच यही है आज के इंसान का ।
हिन्दी साहित्य मंच पर आपका स्वागत है । इंसानी जिंदगी पर आपकी रचना पसंद आयी ।
जहां देखता हूं बस हर इंसान बेकरार दिखता है,
अकसर हर आदमी बस यही कहता है कि सब कुछ बिकता है।
भई वाह बहुत खूब ।
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