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रविवार, 31 जनवरी 2010

कविता प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त --- रौद्र -रूद्र [कविता]--प्रताप सिंह



प्रशस्त शस्त शैल मध्य चिर विविक्त कन्दरा
शिला प्रगल्भ पुष्ट, व्याघ्र चर्म था बिछा हुआ
अनादि आदि देव थे समाधि में रमे हुए
सती वियोग का अथाह दाह प्राण में लिये

विरक्त, भक्त, सृष्टि के सभी क्रिया कलाप से
हरे त्रिलोक-ताप जो, जले विछोह ताप से
समाधि साध कर रहे विषाद की विवेचना
विदीर्ण जीर्ण प्राण की बनी सुत्राण साधना

ललाट चन्द्र मंद आज छिन्न भिन्न चन्द्रिका
कराल व्याल पीटते कपाल खोह भित्तिका
प्रदाह सिक्त डोलती मिटा तरंग गंग का
गणादि आदि घूमते अतेज, तेज भंग था

उधर विनाश में लगा असुर नरेश "तारका"
अदभ्र शक्ति, तेज, ताप बाहु का अतुल्य था
मिला जो दिव्य-वर बना अमर्त्य, मर्त्य लोक मे
परास्त सुर हुये, दनुज अजेय था त्रिलोक मे

सदन विहीन दीन हीन देवता डरे डरे
निरीह यत्र तत्र क्लांत क्रांत हिय लिए फिरें
सुजान, ऋषिगणों, मनीषियों को घोर त्रास था
मचा हुआ था त्राहि त्राहि भूमि स्वर्ग काँपता

विफल हुए जतन सभी मिला न कुछ उपाय जो
सुरेश संग सुर चले चतुर्मुखार द्वार को
अधम असुर विनाश का गहन रहस्य पूछने
परम पिता विधान-विज्ञ ज्ञान-धाम ब्रह्म से

दुरास के विनाश का विहित रहस्य खोलते
बिरंचि ने कहा, व्यथित सुरेश, देव आदि से
किसी विधान श्रीनिधान शम्भु पाणिग्रह करें
प्रवीर रुद्र-वीर्य-जात दैत्य का दमन करे

परन्तु हैं महेश तो समाधि में रमे हुए
मिटा उमंग, देव सब विचार कर व्यथित हुए
करे समाधि भंग कौन रुद्र की त्रिलोक में
विषाद ग्रस्त त्रस्त देव मुख लगे विलोकने

प्रकट हुए तभी वहाँ, सुरेन्द्र के गुहारि पे
बसंत संग पंचबाण पुष्प चाप कर गहे
विनत सभी विबुध करें मनोज से ये याचना
समय विकट विपत्ति का अपूर्व आज आ पड़ा

असुर विनाश हेतु रुद्र ध्यान भंग जो करो
प्रगाढ़ दाह सिक्त सृष्टि का अतीव दुःख हरो
कहा विहँसि मनोज ने दुरूह यह सुकाज है
वरण समान काल के महेश से दुराव है

परन्तु श्रुति कहे सदा सुजान ज्ञानवान तो
सुकर्म के लिये मिटा दिए सुदेह प्राण को
सुकार्य के लिये मरूँ, नहीं मुझे विक्षोभ हो
हिताय सृष्टि, भंग हो समाधि, कामना करो

मदन चले बसंत, राग, मधु गणादि संग हो
प्रवेग काम का लिये, महेश ध्यान भंग को
प्रभाव में लिया समस्त सृष्टि के निकाय को
विराग,ज्ञान,ध्यान,धर्म,तप,चले अरण्य को

विनत विशाल वृक्ष चूमते उदार वल्लरी
सरित, तडाग भर उमंग सिन्धु ओर बह चलीं
समय बिसार, बन्ध त्याग व्योम, जल, मही चरी
सजीव चर अचर अतीव काम वश हुए सभी

मनुज, दनुज, पिशाच, भूत, व्याल, देव, तापसी
हुए सुजान मार वश विरक्त, सिद्ध, ऋषि, मुनी
सदा विलोकते जगत समस्त व्रह्म छवि लिये
विवेक, धर्म, धैर्य त्याग काम की शरण लिये

वियंग के गुहा मनोज दल सहित पहुँच गये
विलोक ध्यान मग्न भूतनाथ तेज डर गये
फिरे तो लोक लाज थी, रुके तो काल गाल था
मरण अवश्य ही मदन खड़ा हुआ विचारता

प्रकट किया सुरम्य दृश्य कंज मंजु वाटिका
सुभग तडाग, बहु लता, सुमन विविध, हरीतिमा
करें अपूर्व गान, नृत्य काम सिक्त अप्सरा
जतन किये मनोज कोटि किन्तु सब विफल रहा

अचल महेश जो दिखे अहम् जगा अनंग का
अजीत चाप पर चढा अचूक शर निषंग का
प्रखर प्रचंड पुष्प वाण दक्ष वक्ष जा लगा
प्रविष्ट प्राण में हुआ अभेद्य त्राण बेधता

वियंग देह कँपकँपा उठा अनंग वाण से
अनंत व्योम अंतरिक्ष भूमि स्वर्ग कांपते
उठा प्रलय सदृश निनाद नाद दिग्दिगंत से
सिहर उठा कराल काल भाल के तरंग से

चला अदम्य काम मिस्र हो लहू के संग जो
उठा प्रचंड ज्वार अब्धि पे झुका हो चन्द्र जो
अचंड शीश शेष का विकंप, कंप मेदिनी
सकल चराचरे अवाक देखते विकट घडी

फड़क फड़क भुजा उठी, तरंग अंग भर रहा
अनिल सुदीर्घ स्वांस का अनल प्रवाह कर रहा
धधक धधक उठी, प्रचंड तप्त रक्त वाहिनी
महेश के शरीर से बहे तडित प्रदाहिनी

डमक डमक बजा डमरु , त्रिशूल खनखना उठा
अदंक नाद भर गया, दिगंत कंपकपा उठा
लिपट भुजंग रुद्र कंठ जीभ लपलपा उठा
महा कराल काल ज्यों विक्षुब्ध तिलमिला उठा

प्रतप्त सुरनदी वृहद् जटाओं में उबल रही
पतंग सा प्रदीप्त चन्द्र, चन्द्रिका थी जल रही
महेश के त्रिनेत्र पट सवेग फडफडा उठे
रसाल पत्र में छुपे मनोज थरथरा उठे

अखण्ड रोष नीलकंठ का प्रवेग से चला
ज्वलल्ललाट मध्य दीप्त दिव्य चक्षुपट खुला
प्रकट हुयी प्रदाह सिक्त ज्यों प्रभा समुज्ज्वला
असंख्य ज्योति पुंज संग नाचती हो चंचला

पड़ी जो दृष्टि आम्र वृक्ष पर छुपे मनोज पे
हुए तुंरत भस्म कामदेव शिव प्रकोप से
जगे महेश देख देव नाद हर्ष से किये
जगत हिताय कामदेव देह त्याग कर दिये

अमर कथा अजर कथा कथा अजेय पात्र की
प्रकोप, दाह, कामना , महा परोपकार की
कथा विछोह , रोष , अम्बरीश के प्रताप की
हिताय सृष्टि , कामदेव के अपूर्व त्याग की


शनिवार, 30 जनवरी 2010

एक प्रेम कहानी ऐसी भी [कहानी]---अनिल कान्त

रात लौट आई लेकर फिर से वही ख्वाब
कई बरस पहले सुला आया था जिसे देकर थपथपी


कमबख्त रात को भी अब हम से बैर हो चला है

अक्सर कहानी शुरू होती है प्रारंभ से...बिलकुल शुरुआत से...लेकिन इसमें ऐसा नहीं...बिलकुल भी नहीं...ये शुरू होती है अंत से...जी हाँ दी एंड से...कहानी का नहीं...उनके प्यार का...हाँ वहाँ से जहाँ से उनका प्यार ख़त्म होता है...उनकी आखिरी मुलाकात के साथ...जब प्रेरणा और अभिमन्यु आखिरी बार मिलते हैं...प्रेरणा की शादी के साथ..


और फिर 5 साल बाद.....


एक छोटा सा स्टेशन है...गाडी रूकती है...स्टेशन सुनसान है...अभिमन्यु ट्रेन से उतरता है...एक परिवार और उतरा है...उन्हें लेने कोई आया है...वो उन्हें लेकर चले जाते हैं...अभिमन्यु काले कोट वाले साहब से कुछ पूंछता है...उसके बाद वो आगे बढ़ जाता है...वहाँ बैंच दिखाई दे रही हैं...वो वहाँ बैठ जाता है...पीछे की बैंच पर कोई शौल ओढे बैठा है...हाड कपाने वाली ठण्ड में वो कुछ ज्यादा गर्म कपडे नहीं पहने हुए...अपनी फिक्र करना छोड़ दिया है उसने...वो सिगरेट जला लेता है...धुंआ उड़कर बादलों सा आस पास पसरने लगता है पीछे से खांसने की आवाज़ आने लगती है...एक्सक्यूज मी, प्लीज....अभिमन्यु आवाज़ सुनकर अचानक से मुड़ता है...क्योंकि ये आवाज़ तो जानी पहचानी थी...हाँ ये प्रेरणा की आवाज़ थी...उधर प्रेरणा भी अभिमन्यु को देखकर अजीब सी रह जाती है....कुछ पल के लिए सन्नाटे में भी एक ऐसा सन्नाटा पसर जाता है...ठीक वैसा ही सन्नाटा जैसा दोनों के बीच उस आखिरी मुलाक़ात पर पसरा था....जो आज तक खामोशी कायम किये हुए था....

प्रेरणा तुम...अभिमन्यु बोलता है...हाँ अभिमन्यु के लिए तो ये एक ख्वाब जैसा ही था उसे दोबारा देखना...और फिर दोनों बैंच की एक ही तरफ बैठ जाते हैं....कुछ सवाल प्रेरणा की आँखों में थे तो कुछ अभिमन्यु की में...पर दोनों खामोश...सिगरेट का धुंआ अभी भी उड़ रहा था...छोड़ी नहीं ये आदत...प्रेरणा के सवाल के साथ सन्नाटा ख़त्म होता है....ह्म्म्म...अभिमन्यु प्रेरणा की तरफ देखता है....फिर सिगरेट की तरफ...आदतें....आदतें....ये आदतें भी अजीब होती हैं....कुछ अपने आप छूट जाती हैं....और कुछ चाहने पर भी नहीं छूटती....फिर से पीना कब शुरू कर दी...प्रेरणा कहती है...पता नहीं कब शुरू हुई...ठीक से अब तो याद भी नहीं...खैर...तुम यहाँ...कैसे...वो यहाँ के नवोदय विद्यालय में नौकरी मिल गयी है...अच्छा कब से...1 साल हो गया...और आप...ह्म्म्म...सरकारी नौकरी जब जहाँ भेज दें चला जाता हूँ....वैसे यहाँ एक कंपनी है उसका सोफ्टवेयर बनाने का प्रोजेक्ट मिला हुआ है...उसी के सिलसिले में....ओह अच्छा...पहली बार आना हुआ है आपका....हाँ...यहाँ से जाने के लिए बस तो सुबह ही मिलेगी...हाँ वो काले कोट वाले भाई साहब बता रहे थे...

एक बहुत ही ठंडी हवा का झोंका अभिमन्यु के कानों से गुजरता है...अभिमन्यु कपकपाने लगता है...ये क्या दो कपडों में इतनी ठण्ड में चले आये...मालूम है कि इतनी ठण्ड है फिर भी....प्रेरणा अपना बैग खोलकर गरम शौल देखने लगती है....अरे नहीं मेरे पास है वो...माँ ने चलते वक़्त रख दिया था...प्रेरणा शौल निकालकर देती है...ओढ़ लीजिये इसे जल्दी से...अभिमन्यु के मुंह से माँ के बारे में सुनकर...माँ कैसी हैं...अभिमन्यु शौल ओढ़ते हुए...अच्छी हैं...चलते वक़्त तमाम हिदायतें दे रही थीं...

तभी प्रेरणा को याद आता है वो बीता हुआ पल...जब प्रेरणा अभिमन्यु से कहती है "क्या माँ बहुत प्यार करती हैं...हाँ बहुत...बहुत प्यार करती हैं...बहुत प्यारी हैं...वो तुम्हें मुझसे भी ज्यादा चाहेंगी देखना तुम...अच्छा...सच...हाँ वो अपनी बहू के बहुत ख्वाब बुनती हैं"...फिर एक ही पल में प्रेरणा अतीत से उस बैंच पर लौटती है...और मन ही मन सोचती है...उनकी बहू के बारे में....अभिमन्यु की बीवी के बारे में....पर सोचती है कि वो क्या हक़दार है ये पूँछने की....वो बस सोचकर रह जाती है....पूंछती नहीं...

ठाकुर साहब कैसे हैं ? अभिमन्यु सवाल की तरह पूँछता है प्रेरणा से...वो जानती है कि वो उसके पापा के बारे में पुँछ रहा है....हाँ यही तो कहता था...अभिमन्यु उन्हें...ठाकुर साहब....वो अच्छे हैं...पहले की ही तरह...प्रेरणा अभिमन्यु की तरफ देखती है पर कुछ कहती नहीं...अभिमन्यु सिगरेट जला लेता है...एक वो समय भी था जब प्रेरणा के एक बार कहने पर अभिमन्यु ने सिगरेट छोड़ दी थी....कभी नहीं पीता था फिर....धुएं के साथ एक वो सच भी धुंधला सा पड़ गया...

अभिमन्यु इधर उधर देखता है...कुछ तलाशता सा...चाय वाला कहीं...प्रेरणा अपने बैग से थर्मस निकाल कर अभिमन्यु की तरफ चाय बढाती है...ये चाय...वो मैंने चाय की दुकान बंद होने से पहले ही थर्मस में भरवा ली थी...आज भी उस्ताद हो...थैंक यू कहते हुए अभिमन्यु चाय ले लेता है...और मन ही मन सोचता है कि प्रेरणा तो शुरू से ही उस्ताद थी...हर काम में...ख्याल रखने में हर बात का...

अभिमन्यु अपने बैग की जेब तलाशने लगता है...क्या हुआ...देख रहा हूँ शायद कुछ खाने को पड़ा हो....अरे मेरे पास है ना...प्रेरणा अपने बैग से नमकीन निकालती है...तब तक अभिमन्यु अपने बैग से कुछ निकालता है....अरे गुजिया...प्रेरणा कहती है....माँ ने बनायीं है....हाँ....लो जानता हूँ तुम्हें बहुत पसंद है....प्रेरणा गुजिया लेती है...खाती हुई कहती है...आपकी बीवी तो बड़ी किस्मत वाली होगी जो इतनी प्यारी माँ मिली उन्हें...नहीं किस्मत ने माँ का साथ नहीं दिया...क्या मतलब...प्रेरणा बोली....प्यार लुटाने के लिए बहू का होना भी बहुत जरूरी है....कहते हुए अभिमन्यु चाय का घूँट गले से नीचे उतारता है...अभी...प्रेरणा के मुंह से निकला...और वो अभिमन्यु के चेहरे की तरफ देख रही थी...ढेर सारे सवाल...और ढेर सारी पुरानी बातें साफ साफ प्रेरणा के चेहरे पर पढने को मिल जाती इस समय...

खैर मेरा छोडो....तुम बताओ...तुम इतना दूर कैसे नौकरी करने आ गयी...तुम्हारे पति कहाँ हैं आजकल...ऐसा सवाल जिससे बचने के लिए वो यहाँ सबसे दूर पड़ी थी...आखिरकार बरसों बाद पूंछा गया....और वो भी उस इंसान ने जिसके एक तरफ जिंदगी कुछ और थी...और उसके परे जिंदगी कुछ और...

प्रेरणा के चेहरे पर खामोशी छा गयी...वो कुछ नहीं बोली...सिगरेट का एक कश लेकर धुंआ छोड़ते हुए उसने कहा...तुमने जवाब नहीं दिया...प्रेरणा नमकीन का पैकेट बैग में रखने लगी...और थर्मस को भी उसने बैग में रखना चाहा...एक अजीब सी खामोशी लिए हुए...अभिमन्यु के लिए ये खामोशी एक लम्बा सवाल बन चुकी थी...अभिमन्यु ने बोला....बोलती क्यों नहीं क्या हुआ...प्रेरणा के खामोश चेहरे की आँखें भर आई...अभिमन्यु उसकी आँखों की नमी को अपने दिल की गहराइयों तक महसूस करता है....क्या...प्रेरणा के मुंह से बस इतना निकला वो अब नहीं हैं....सिगरेट सुलग कर अभिमन्यु का हाथ जला देती है...उसके हाथ से सिगरेट छूट जाता है....प्रेरणा की आँख से आंसू की बूँद टपक जाती है....मतलब क्या, कैसे....अभिमन्यु पूँछता है....एक रोड एक्सीडेंट और फिर सब ख़त्म....आज बरसों बाद अभिमन्यु की आँख भर आई...एक दर्द फिर से हरा हो गया....क्योंकि वो दुखी थी....कब...कब हुआ....शादी के एक साल बाद...प्रेरणा बोली....और आँसू थे जो रुक ही नहीं रहे थे....और तुम पिछले 4 साल से....बोलते हुए अभिमन्यु उसके रोते हुए चेहरे को देखता रह गया....दोनों के बीच एक लम्बी खामोशी छा गयी...

ये खामोशी भी बहुत अजीब होती है...कमबख्त खामोशी में ऐसा जान पड़ता है कि बस साँसों के चलने की ही आवाज़ आ रही हो...आज की खामोशी अभिमन्यु को उस मुलाकात की खमोशी पर पहुंचा देती है...तब भी उसके पास कहने को कुछ नहीं बचा था और आज भी वो क्या कहे उसे समझ नहीं आ रहा था...लेकिन वो प्रेरणा को इस तरह रोते हुए, दुखी नहीं देख सकता था...वो बात बदलने के उद्देश्य से बोलता है...यहाँ क्या पढ़ाती हो...'वही अंग्रेजी' प्रेरणा जवाब देती है...तो मोहतरमा बच्चों को अंग्रेज बना रही हैं...आप आज तक नहीं कहती हुई प्रेरणा चुप हो जाती है...नहीं सुधरे यही कहना चाहती हो ना...मैं कैसे सुधर सकता हूँ...प्रेरणा थोडी सी मुस्कुरा जाती है...अभिमन्यु भी यही चाहता था...

फिर कुछ देर के लिए सन्नाटा पसर जाता है...दोनों ही कुछ सोचने लगते हैं...शादी क्यों नहीं कर लेते...कब तक यूँ ही भटकते रहोगे...प्रेरणा, अभिमन्यु से कहती है...और फिर माँ को भी तो अपनी बहू पर लाड, प्यार लुटाना है ...उनसे उनका हक़ क्यों छीनते हो...अभिमन्यु प्रेरणा की आँखों में देखता है फिर सिगरेट की डिब्बी निकाल लेता है...सिगरेट जलाकर एक कश लेता है...धुंआ फैलाता है...फिर कहता है...जानती हो प्रेरणा बचपन में माँ ने एक कहानी सुनाई थी...एक पंक्षी की कहानी...माँ कहती थी कि एक ऐसा पंक्षी होता है जो बारिश कि उस पहली बूँद का इंतज़ार करता है जो बहुत दिनों बाद होती है(एक ख़ास बारिश)...और अगर वो उसे ना पी पाए तो फिर वो बाकी की बूंदों के बारे में सोचता ही नहीं...और उसके साथ ही अगला कश लेकर धुंआ उड़ा देता है...प्रेरणा अभिमन्यु के चेहरे को देखती रह जाती है....और फिर वैसे भी कोई लड़की मुझे पसंद ही नहीं करती...कोई शादी ही नहीं करना चाहती...कहता हुआ मुस्कुराता है...और उठकर टहलने लगता है...

वैसे भी किसी ने कहा है 'हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता'...वैसे चाँद मियाँ अपनी ड्यूटी पर हैं देखो अभी भी चमक रहे हैं...शायद आज चाँदनी रात है...हाँ शायद (प्रेरणा बोलती है)...तभी अभिमन्यु शौल हटाकर ठंडी चल रही हवा को शरीर से छूता है...हू-हू-हू-हू...अरे बहुत ठण्ड है...वैसे तुम्हें चाँदनी रात बहुत पसंद थी ना...तब जानती नहीं थी ठीक से कि अमावस्या भी होती है और शायद किसी किसी की जिंदगी पूरी अमावस्या की तरह ही होती है...प्रेरणा कहती है...इधर आ जाइये और शौल ओढ़ लीजिये ठण्ड लग जायेगी...

अभिमन्यु को ये बात अन्दर तक लगती है...कहीं ना कहीं दिल बुरी तरह चकनाचूर हुआ पड़ा है...जीने की तमन्ना ही जाती रहती है इंसान के पास से तब ऐसा ही होता है...शायद ऐसा ही कुछ...फिर अभिमन्यु घडी देखता है अभी करीब 1 घंटे में सुबह हो जायेगी...कितना दूर है तुम्हारा हॉस्टल...यही कोई 4-5 किलोमीटर दूर होगा...ह्म्म्म्म कहते हुए आकर बैंच पर बैठ जाता है

कितनी ही बातें थीं प्रेरणा के पास कहने के लिए मगर सिर्फ सोच ही रही थी वो...और अभिमन्यु अपनी सोच में डूबा हुआ था..आलम यह था कि दोनों बैंच पर बैठे थे और बिल्कुल खामोश...सोचते सोचते कब वक़्त बीत जाता है पता ही नहीं चलता...अचानक से अभिमन्यु ऐसे उठता है जैसे नींद से जागा हो...फिर घडी की तरफ देखता है...अरे सुबह हो गयी...प्रेरणा कहती है हाँ...चलो चलते हैं अब...

दोनों स्टेशन से बाहर निकल आते हैं...बाहर बस खड़ी थी और पास ही एक तांगा...अभिमन्यु तांगा देखकर बोलता है...अरे चलो तांगे में चलते हैं...प्रेरणा कहती है तांगे में क्यों...अरे चलो ना तांगे में अच्छा लगेगा...वो तांगे वाले के पास जाते हैं...वो बताता है कि पहले स्कूल पड़ेगा फिर वो कंपनी...अभिमन्यु कहता है ठीक है चलो बैठ जाते हैं इसमें...

छोटा सा और बहुत हरा भरा सा पहाड़ी क़स्बा था...तांगे में बैठकर सफ़र करने में अलग ही आनंद आ रहा था...अभिमन्यु तांगे वाले से मजाक के लहजे में कहता है...अरे भाई इसमें एफ.एम रेडियो है क्या...वो कहता है क्या साहब आप मजाक बहुत करते हैं...अच्छा तो तुम फिल्मों की तरह कोई गाना ही सुना दो...साहब गाना तो नहीं आता...अच्छा ये तो बहुत गलत बात है...उधर प्रेरणा थोडा मुस्कुराती सी है...अच्छा तो कितने बाल बच्चे हैं आपके...एक है...बस एक ही, हम तो सोच रहे थे 4-5 तो होंगे ही...अरे साहब ऐसी भूल तो हम कतई नहीं कर सकते...क्यों भला...अरे हमारे बापू जो थे उन्होंने 11 बच्चे पैदा किये थे...पूरी 10 लड़कियों के बाद हमे पैदा करने के वास्ते...और फिर सारी जिंदगी शादियाँ ही करते रह गए...प्रेरणा अपने मुंह पर हाथ रख लेती है और फिर दूसरी तरफ देखने लगती है...अभिमन्यु मन में ही कुछ बोलता सा है...'बहुत मेहनती थे जैसा कुछ'...

तांगे वाला पूंछता है आप लोगन के बच्चे नज़र नहीं आते...लगता है अभी नयी नयी शादी हुई है...प्रेरणा और अभिमन्यु एक दूसरे की आँखों में देखते हैं...फिर नज़रें हटा लेते हैं...कहीं और देखने लगते हैं...धीरे धीरे बातों ही बातों में सफ़र कट जाता है...प्रेरणा का हॉस्टल आ जाता है...प्रेरणा अपना बैग उठा कर उस पर से उतरती है...अभिमन्यु उसके चेहरे की तरफ़ देखता है...शायद कुछ बोलना चाहता है...पर खामोश है...उधर प्रेरणा भी कुछ कहना चाहती है...पर वो भी सोच कर रह जाती है...वो चल देती है...अभिमन्यु कहता है...कभी कोई जरूरत हो, कोई परेशानी हो मुझे याद करना...और अपना कार्ड उसे दे देता है...प्रेरणा कार्ड ले लेती है...फिर उसके बाद अभिमन्यु तांगे में बैठ अपने ऑफिस की तरफ चल देता है


"लेकर सर पे अपने आई रात पोटली
बैठ सिरहाने मेरे वो तमाम छोड़ गयी उलझनें

डरता हूँ कहीं दिन यूँ ही ना बीत जाए"

अभिमन्यु जानता था कि प्रेरणा कभी फ़ोन नहीं करेगी...कुछ दिन अभिमन्यु अपनी ऑफिस में व्यस्त रहा...और कंपनी के ही दिए हुए घर में रहने लगा...ऐसा नहीं था कि वो प्रेरणा को याद नहीं करता बल्कि वो ये सोचता कि कहीं उसकी वजह से वो और ज्यादा परेशां ना हो...

एक शाम मार्केट में एक रेस्टोरेंट में वो बैठा हुआ था...तभी वहाँ प्रेरणा का आना हुआ...प्रेरणा ने उसे देख लिया...वो उसके पास ही आकर बैठ गयी...क्या लोगी...कुछ खाना है या पीना है...नहीं कुछ नहीं...अरे...ठीक है एक कॉफी...अरे भाई जान दो कॉफी ले आना...अभिमन्यु आवाज़ देता है...तो यहाँ कैसे...कुछ नहीं वो कुछ सामान लेने आई थी...अच्छा...अभिमन्यु प्रेरणा की आँखों में झाँकता है...फिर कहता है काफी बदल गयी हो...क्यूँ क्या हुआ प्रेरणा बोली...चाल ढाल, कपडे पहनने का अंदाज...लगता है स्मिता पाटिल की कोई फिल्म देख रहा हूँ...प्रेरणा हल्का सा मुस्कुरा जाती है...

तभी कॉफी आ जाती है...अरे एक मिनट में आता हूँ...अभिमन्यु प्रेरणा को बाथरूम जाने का इशारा करता है...उसके जाने के बाद अचानक से प्रेरणा की नज़र अभिमन्यु की डायरी पर पड़ती है...वो जानती थी की अभिमन्यु लिखता भी है...वो यूँ ही उसकी डायरी उठाकर पन्ना खोल लेती है...उस पर एक कविता लिखी हुई थी....कविता क्या थी दर्द की खान थी...उससे रहा नहीं गया और उसने वो बंद कर दी...थोडी देर में ही अभिमन्यु आ जाता है...प्रेरणा कॉफी पीते हुए बार बार अभिमन्यु को देख रही थी और अभिमन्यु प्रेरणा को...तो अभी भी लिखते हो डायरी...अभिमन्यु थोडा सा मुस्कुरा जाता है...हाँ कभी कभी लिख लेता हूँ

प्रेरणा कहना चाहती थी की क्यों अपनी जिंदगी ख़राब कर रहे हो...पर वो कह नहीं पाती...कुछ भी कहने से पहले उसे हमेशा ख्याल आ जाता था कि वो ये हक़ तो कब का खो चुकी है...कॉफी ख़त्म हो जाती है...वो कहती है अच्छा अब चलती हूँ मुझे जल्दी जाना है...ह्म्म्म ठीक है चलो मैं भी चलता हूँ तुम्हें वहाँ छोड़ दूंगा...प्रेरणा नहीं चाहती थी कि अब और ज्यादा अभिमन्यु उससे मिले और दिल ही दिल में परेशां रहे...वो बहाना करती है नहीं उसे एक और काम है...वो चली जायेगी...अभिमन्यु ज्यादा जिद नहीं करता और उसे जाने देता है

वो कहते हैं ना कि कुछ रिश्ते एहसास से जुड़े होते हैं...जिनमें बंदिशें नहीं होती...पवित्रता और एक दूसरे से जुडाव ही एक दूसरे की तरफ खींच लेते हैं...वहाँ रिश्ता बनाना नहीं पड़ता...खुद ब खुद कायम हो जाता है...ऐसा ही रिश्ता था अभिमन्यु और प्रेरणा का रिश्ता...यूँ ही जब तब प्रेरणा और अभिमन्यु टकराने लगे...ना चाहते हुए भी मिल जाते...और बातें होती...वही एक दूसरे को देखना...महसूस करना और कुछ ना कहना...प्रेरणा के लिए तो अजीब दुविधा थी...उसने बहुत कुछ सहा था इन पिछले 5 सालों में...पहले अपना प्यारा खोया और फिर अपना सुहाग...और फिर पिछले अजीबो गरीब 4 साल...जो कैसे बीते वो तो बस प्रेरणा ही जानती थी

उस दिन अभिमन्यु प्रेरणा से मिला और उससे शाम को पास की ही पहाड़ी पर घुमाने के लिए कहा...प्रेरणा पहले तो मना करना चाहती थी लेकिन फिर उसके मन ने मना नहीं किया...शायद अब वो एक रिश्ते से जुड़ने लगी थी...उसने आने के लिए बोल दिया

शाम को दोनों उस पहाड़ी पर बैठे हैं...चारों और बादल घिर आते हैं...ठंडी ठंडी रूमानी हवा बह रही है...अभिमन्यु प्रेरणा से कहता है...याद है तुम्हें वो एक दिन जब हम यूँ ही इसी तरह पानी से भरे हुए बादलों के नीचे बैठे हुए थे...उस जगह जहां हम अक्सर मिलते थे...प्रेरणा अपने अतीत में चली जाती है जहाँ प्रेरणा अभिमन्यु के सीने पर सर रख कर बैठी हुई थी...और प्यारी प्यारी बातें करती थी...कितना सुखद और रूमानी था वो दौर...अचानक से प्रेरणा वापस लौट आती है...सच में...आज में...वो बस अभिमन्यु की तरफ देखती है...आप शादी क्यों नहीं कर लेते...कब तक यूँ ही घुटते रहोगे...कब तक माँ यूँ ही इंतजार करती रहेंगी...कब तक ये सब यूँ ही चलता रहेगा...कब तक अतीत में जीते रहोगे...मैं चाहती हूँ कि तुम खुश रहो...

अभिमन्यु हाथ की लकीरों को देखता है फिर हँसता सा है...ये सब किस्मत की बातें है...क्या तुम खुश रह सकीं...वो प्रेरणा की आँखों में देखता है...उसकी आँख भर आती है...इसीलिए शायद मेरी किस्मत में भी ये सब नहीं...बादल आज कुछ मेहरबान हो चले...ठीक उसी पल बारिश भी होने लगती है जब प्रेरणा की आँखों से आँसू बहने लगते हैं...प्रेरणा उठकर जाने लगती है...अभिमन्यु उसका हाथ पकड़ लेता है...मैं भी तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ...यूँ घुट घुट कर मरते हुए नहीं...और पास खींच लेता है...इतना पास कि दोनों के बीच बस मामूली सा फासला है...मुझसे शादी करोगी...प्रेरणा उसकी आँखों में देखती रह जाती है...काफी देर तक देखती रहती है...फिर अचानक से...नहीं मैं शादी नहीं करना चाहती...और खुद को छुडा लेती है...मुझे पता था कि आप मुझसे मिलते रहोगे और एक दिन ऐसा कुछ होगा...और मुझ पर एहसान करने की सोचोगे...मैं जा रही हूँ...प्रेरणा चली जाती है...अभिमन्यु वहीँ बारिश में खड़ा खड़ा भीगता रहता है...उसकी आँखों से भी पानी बरस रहा था...

दिन बीत जाते हैं...लगभग 1 महीना हो जाता है प्रेरणा उसे नहीं मिली...अभिमन्यु थोडा चिंता में आ जाता है...एक रोज़ वो मार्केट गया हुआ था तभी वो तांगे वाला मिलता है...अरे साहब आप यहाँ...अभिमन्यु उसे पहचान जाता है....क्यों क्या हुआ...अरे वो मेमसाहब तो हॉस्पिटल में भर्ती हैं...अभी अभी उन्हें छोड़ कर आ रहा हूँ...अभिमन्यु अपने हाथ से सिगरेट फेंकता है....कहाँ, किस हॉस्पिटल में ?...वो कहता है चलो मैं आपको छोड़ देता हूँ...

हॉस्पिटल में पहुँच अभिमन्यु प्रेरणा के कमरे में पहुँचता है...वो बिस्तर पर थी...उसे इस हालत में देखकर उसकी आँखें गीली हो गयी...उसके पास एक टीचर थी...वो खामोशी से वहीँ पास ही बैठ जाता है...वो टीचर से पूँछता है क्या हुआ...अरे मैडम की तबियत काफी दिनों से ख़राब थी...शायद पीलिया है और ऊपर से नीद नहीं आती तो नीद की गोली खाती हैं...सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया...बस जैसे तैसे यहाँ लेकर आ रहे हैं...अभिमन्यु इतना दुखी कभी नहीं था...वो सोचता है प्रेरणा ने कभी बताया भी नहीं...

2-3 घंटे बाद वो मैडम से बोलता है आप जाइए...मैं यहाँ सब संभाल लूँगा....मैडम बताती हैं कि उन्होंने इनके पिताजी के पास फ़ोन कर दिया है वो कल तक आ जायेंगे...अभिमन्यु लगातार यूँ ही प्रेरणा के पास बैठा रहता है...अगले 2-3 घंटे में प्रेरणा को होश आता है...अभिमन्यु को सामने देखकर वो उसे देखती रह जाती है...अरे आप...बस कुछ बोलो मत तुम मुझसे....तुमने इस काबिल भी नहीं समझा कि मैं तुम्हारी इस हालत में तुम्हरे साथ रह सकूं...प्रेरणा खामोशी से सब सुनती रहती है...अभिमन्यु की आँखों से आँसू बह रहे थे और वो अपने दिल की सारी बातें कहे जा रहा था...वो मैंने सोचा...प्रेरणा कुछ कहना चाहती है...हाँ बस अब कुछ कहने की जरूरत नहीं...कहते हुए अभिमन्यु उसे रोक देता है

अभिमन्यु सारी रात जाग जाग कर उसकी देखभाल करता है...अगले रोज़ शाम तक ठाकुर साहब आ जाते हैं...वो अभिमन्यु को देखकर चौकं जाते हैं...पर आज उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं था...वो एक हारे हुए खिलाडी थे...उनके सारे पासे उल्टे जो पड़े थे...उन्होंने प्रेरणा को देखा उस से बात की...अब उस कमरे में तीन वो इंसान थे जो एक दूसरे की जिंदगी से जुड़े हुए थे....एक इंसान की वजह से तीनो की जिंदगी आज इस मुकाम पर थी...कई बार प्रेरणा के पिताजी अभिमन्यु को धन्यवाद कहना चाहते और अपने किये की माफ़ी माँगना चाहते...पर रुक जाते...7-8 दिन तक अभिमन्यु यूँ ही प्रेरणा की देखभाल करता रहा...इतनी देखभाल और उसकी फिक्र तो उसके पिताजी भी नहीं कर पाते...उसके पिताजी को बार बार यही ख्याल आता...हर रोज़ प्रेरणा अभिमन्यु को अपनी आँखों के सामने देखती...अपनी देखभाल करते देखती...आज उसके दिल में कोई ऐसी बात नहीं थी कि कुछ भी गलत सोच सके...आज उसे उस दिन पहाड़ी पर अपने किये हुए बर्ताव पर मलाल हो राह था...कि वो कितना गलत सोचती थी...अभिमन्यु से ज्यादा उसे कभी किसी ने चाह ही नहीं और ना कोई चाह सकता...आज उसकी समझ में आ गया था

अभिमन्यु दिन के समय कहीं बाहर कुछ दवाइयाँ लेने गया हुआ था...उसकी ऑफिस से चपरासी आता है जो उसकी माँ की चिट्ठी लाता है...माँ की लिखी हुई चिट्ठी थी...प्रेरणा से रहा नहीं गया...प्रेरणा चिट्ठी खोल कर पढने लगती है...चिट्ठी पढ़कर पता चलता है कि माँ उसे घर आने को बोल रही हैं और अभिमन्यु के किये हुए वादे को पूरा करने के लिए कह रही हैं....कि अबके बार अगर आपको कोई लड़की पसंद आती है तो वो उसे माँ के साथ देखने जाएगा...प्रेरणा चिट्ठी पढ़कर रख देती है और उसके मन में ख्याल आता है कि वो क्यों अभिमन्यु के रास्ते में आये...क्यों वो पहले से ही शादी कर चुकी लड़की से शादी करे...क्यों वो एक विधवा से शादी करे...इसी पशोपेश में वो तमाम बातें बुन लेती है...अभिमन्यु के लौटने पर वो बताती है कि माँ कि चिट्ठी आई है...पर यह नहीं बताती कि उसने पढ़ी है...1-2 रोज़ में प्रेरणा की हॉस्पिटल से छुट्टी हो जाती है...प्रेरणा के पिताजी भी जाने के लिए होते हैं

प्रेरणा के पिताजी प्रेरणा के हॉस्टल से जाने के बाद अभिमन्यु के पास जाते हैं और अभिमन्यु से अपने किये हुए की माफ़ी मांगते हैं...और बहुत शर्मिंदा होते हैं...वो जान चुके थे कि उन्होंने अपनी बेटी और अभिमन्यु का दिल दुखाया है...दोनों की जिंदगी तबाह की है...आज वो जान चुके थे कि ये जात, ये धर्म सब दुनिया की बनायीं हुई बातें हैं...रखा इनमें कुछ नहीं...कुछ भी नहीं...और अंत में वो अभिमन्यु से विदा लेते हुए जाने लगते हैं...अभिमन्यु उन्हें स्टेशन तक छोड़ कर आता है...

अगले 2 रोज़ बाद अभिमन्यु प्रेरणा की खबर लेने जाता है कि अब वो कैसी है...जब वो वहाँ पहुँचता है तो उसे पता चलता है कि वो तो वहाँ से चली गयी...अभिमन्यु सोच में पड़ जाता है कि वो बिना बताये कैसे चली गयी...साथ ही साथ बहुत गुस्सा भी आता है...कोई ठीक ठीक पता भी नहीं था किसी को कि कहाँ गयी है...कई रोज़ बीत जाते हैं हर रोज़ अभिमन्यु वहाँ जाये और कोई खबर ना मिले...जब करीब एक हफ्ता बीत जाता है और फिर भी कोई खबर नहीं मिलती तो वो निर्णय लेता है प्रेरणा के घर जाने का...

अभिमन्यु प्रेरणा के घर जाता है वहाँ उसका भाई और उसके पिताजी मिलते हैं...उसके पिताजी बड़े प्यार से उसे अन्दर बैठा हाल चाल पूंछते हैं...और जब अभिमन्यु उनसे प्रेरणा के बारे में पूँछता है तो वो खामोश हो जाते हैं...उसके जिद करने पर वो हकीकत बताते हैं कि किस तरह उसकी चिट्ठी प्रेरणा ने पढ़ी और अब वो तुम्हारे और तुम्हारी शादी के बीच नहीं आना चाहती...वो जानती है कि जब तक वो वहाँ रहती तुम कहीं शादी नहीं करोगे...इसी लिए वो अपनी किसी सहेली के यहाँ चली गयी है...किस सहेली के यहाँ ये उसने हमे नहीं बताया...बस कह गयी है कि मैं ठीक रहूंगी...अभिमन्यु की आँखों से आँसू बह आते हैं और वो अपने दिल का हाल बताता है कि वो हमेशा से प्रेरणा से ही प्यार करता था और तब भी उससे शादी करना चाहता था और आज भी उससे शादी करना चाहता है...प्रेरणा के पिताजी का दिल भर आता है...पागल लड़की पता नहीं क्या क्या सोचती रहती है...

वो अभिमन्यु को वादा करते हैं कि जैसे ही उसकी खबर आएगी वो उसे बता देंगे...अभिमन्यु उनसे कह कर जाता है कि वो वहीँ वापस जा रहा है वो वहीँ पर प्रेरणा का इंतजार करेगा...क्या पता प्रेरणा वहाँ आ जाये...और जो मैं ना मिला तो फिर...दिन बीत गए...हर रोज़ के साथ एक नयी उम्मीद बनती और फिर रात के साथ वो उम्मीद टूट जाती...दिन महीने में बदल गए...करीब 6 महीने बीत चुके थे....

कौन सोचता है कि ऊपर वाले ने क्या सोच रखा हो आपके लिए...अभिमन्यु तो कभी नहीं सोच सकता था...कभी भी नहीं...आज वो माँ से मिलकर लौटा था...वही स्टेशन था...वही बैंच...वो बैठ जाता है...बस वो था और वो खाली पड़ी बैंच...वो सिगरेट निकालता है, जलाता है और धुंआ उड़ाता है...चारों और फैला हुआ धुंआ...वो धुंआ अजीबो गरीब शक्लें बना रहा था...कभी रोने की तो कभी हंसने की...अभिमन्यु गर्दन झुका कर बैठ जाता है...एक अंतहीन सोच में डूबा हुआ...बिल्कुल खामोश...वक़्त कितना बीत गया उसे पता ही नहीं...तभी ट्रेन की आवाज़ होती है...कोई उतरा है उसमें से...पर अभिमन्यु वैसे ही गर्दन झुकाए बैठा हुआ है...हाथ में सिगरेट जल रही है...उसके पास कोई आता है...उस हाड कपाने वाली ठण्ड में जिसका अभिमन्यु को एहसास नहीं हो रहा था...एक शौल कोई उसके कन्धों पर डालता है....वो गर्दन उठाता है...वो कोई और नहीं प्रेरणा थी...वही चेहरा...वही खामोशी...पर आज उस पर सवाल नहीं थे...आज वो चेहरा बिल्कुल वैसा ही था जैसा वो पहले कभी देखा करता था...जब प्रेरणा सिर्फ उसकी हुआ करती थी...तुम...बस इतना निकला अभिमन्यु के मुंह से...मुझे माफ़ कर दो 'अभी' मैंने आपको हमेशा गलत समझा...और वो उस दिन जब...अभिमन्यु उठता है और प्रेरणा के गाल पर एक चांटा खींच कर मारता है...तुमने सोच भी कैसे लिया...प्रेरणा अभिमन्यु के सीने से लिपट जाती है...मुझे माफ़ कर दो...अब जिंदगी भर फिर कभी ऐसा नहीं सोचूंगी...अभिमन्यु कहता है पक्का...हाँ बिल्कुल पक्का...फिर दोनों एक दूजे से लिपट कर काफी देर तक रोते रहते हैं

अब वही बैंच है और दोनों बैठे हुए हैं...अभिमन्यु प्रेरणा के गले में हाथ डाल कर बैठा हुआ है...फिर वो सिगरेट निकालता है...जलाता है...धुंआ छोड़ता है...आज चाँद अपने शबाब पर है...आज चाँदनी रात है शायद...प्रेरणा बोलती है...अच्छा 'अभी' एक बात कहूँ...ह्म्म्म्म...आप सिगरेट पीते हुए बिल्कुल अच्छे नहीं लगते...सच्ची...हाँ सच्ची...पक्की-पक्की...हाँ बाबा पक्की-पक्की...और प्रेरणा, अभिमन्यु के हाथ से सिगरेट लेकर फेंक देती है...आज से सिगरेट बिल्कुल बंद...अरे...अरे...ये अच्छी दादागीरी है...अभिमन्यु बोलते हुए हँसता है...और प्रेरणा भी हँस देती है...अभिमन्यु प्रेरणा को एक बार फिर से गले लगा लेता है...

"कितने ही चाँद-सितारे देखे थे मैंने इन बीती लम्बी रातों में
हर रात काली और उदास ही नज़र आई मुझे

आज चाँद भी मेरा है और चाँदनी भी मेरी"

आजादी हमें खड्ग, बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल (आलेख )- प्रमेन्द्र प्रताप सिंह


आज महात्‍मा गांधी की पुण्‍यतिथि है, सर्वप्रथम श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। कल दैनिक जागरण मे साबरमती के संत गीत के सम्‍बन्‍ध मे एक लेख था और आज के संस्‍करण मे उसी से सम्‍बन्‍ध चर्चा पढ़ने को मिली। महात्मा गांधी के सम्मान में गाए जाने वाले गीत..दे दी आजादी हमें खड्ग, बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल.. आज के समय मे कितना उचित है यह जानना जरूरी है ?

महात्‍मा गांधी जी ने देश की आजादी मे अहम योगदान दिया इसे अस्‍वीकार करना असम्‍भव है पर यह गीत वास्‍तव मे देश की आजादी मे अपना बलिदान देने वाले लोगो को कमतर बताता है। आज स्‍वयंआकालन करने की जरूरत है कि क्‍या आजादी हमें खड्ग, बिना ढाल के ही मिली है ? इमानदारी से कहे तो गीत लिखने वाले भी इसे स्‍वीकार नही करेगे।

भारत की स्‍वतंत्रता की लड़ाई 1857 और उससे भी पहले छोटी मोटे तौर पर लड़ी जा रही थी, शहीद मंगल पांडेय, झांसी की रानी लक्ष्‍मी बाई और अगिनत ऐसे लोगो ने अपने जान की परवाह न करते हुये भारत माता को आजाद करने के लिये हर सम्‍भव प्रहार किया। गांधी जी के भारत आने के बाद की परिस्थिति दूसरी थी, गांधी जी 1915 मे भारत आये और 1916 से विभिन्‍न आंदोलनो मे भाग लिया। आज हम अपने बच्‍चो तो जो पढ़ा रहे हे कि हमे आजादी बिना खडग और ढाल के मिली है इससे तो यही सिद्ध करना चाहते है कि गांधी से पहले स्‍वतंत्रता के नाम पर सिर्फ मजाक हो रहा था? और गांधी जी के आने के बाद यथावत स्‍वातंत्रता की लड़ाई बिना खड्ग और ढ़ाल के लड़ी गई ?

जो सम्‍मान गांधी का हो रहा है उसी प्रकार का सम्‍मान हर स्‍वातंत्रता सेनानी के साथ होना चाहिये। अगर इतिहासकारो की माने तो गांधी युग न होता तो 20 साल पहले भारत आजाद हो चुका होता और भारत विभाजन की नौबत ही नही आती। गांधी जी का यह गुणगान सिर्फ गांधी वादियो को ही सुहा सकता है, उन्हे ही इसे गाना चाहिये। अगर देश की आत्‍मा के साथ यह गान बहुत बड़ा मजाक है। यह गाना तो सीधे सीधे यही कह रहा है कि गांधी बाबा एक तरफ और सारे शहीद क्रान्तिकारी एक तरफ और तब पर भी गांधी भारी ?क्‍या यही सही है ?

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

हिन्दी साहित्य मंच की कविता प्रतियोगिता की विजेता कविता "प्रतीक्षा - शिविर" ..............गरिमा सिंह


नाम- गरिमा सिंह
आपका जन्म बिहार राज्य के समस्तीपुर जिले में २५ फरवरी सन १९८६ को हुआ । आपने स्नातक और परास्नातक की शिक्षा ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय , दरभंगा से प्राप्त की । वर्तमान में आप इसी विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में शोधरत हैं ।आपका पालन-पोषण आपके नाना और नानी जी ने किया । आप बापू को अपना आदर्श मानते हुए समाजसेवा में रूचि रखती हैं । आपको हिन्दी साहित्य से गहरा लगाव बचपन से ही रहा है ।

संपर्कः योगेश्वर सिंह चन्द्र-योग सदन , ताजपुर रोड आजाद चौक,बी०एड० कालेज रोड ,समस्तीपुर, बिहार-८४८१०१

प्रतीक्षा - शिविर

एक उजाले की आस में ,
जीवन प्रतीक्षा-शिविर बनकर ,
लगा रहा अपनी कल्पनाओं के गोते,
महलों से दूर ,
झोपड़ी के टूटे
ओसारे पर खेल रहे
बच्चों की बातें ,
सुन रही है उनकी मां -
कि पिता जी लायेगें आज रसगुल्ले उनके लिए
मीठे बड़े रस भरे
निकले हैं सुबह
इस प्रतीक्षा- शिविर में
उन्हें अकेला छोड़
किसी काम की तलाश में ।
बच्चों की बातें
मां को कर रही है उद्गिग्न
देखती है वह दूर
क्षितिज पर उतरते सूरज को ,
दिख रहा है दूर से कोई आता
थके कदमों से खाली हाथ ,
मायूस वह सोच रहा है ,
पास आकर कुछ कहना ,
पर हाथ ही वह फैलाकर रह जाता है ,
जिस हथेली में बंधी है एक पुड़िया ,
चीत्कार उठती है
फेंक दूर उस पुड़िया को ,
कि अब भी अपने हिस्से के
उजाले की आस में
वह रहना चाहती है जिन्दा
अपनी प्रतीक्षा - शिविर में ।

स्वर्ग-नर्क के बँटवारे की समस्या - व्यंग्य

स्वर्ग-नर्क के बँटवारे की समस्या
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महाराज कुछ चिन्ता की मुद्रा में बैठे थे। सिर हाथ के हवाले था और हाथ कोहनी के सहारे पैर पर टिका था। दूसरे हाथ से सिर को रह-रह कर सहलाने का उपक्रम भी किया जा रहा था। तभी महाराज के एकान्त और चिन्तनीय अवस्था में ऋषि कुमार ने अपनी पसंदीदा ‘नारायण, नारायण’ की रिंगटोन को गाते हुए प्रवेश किया।

ऋषि कुमार के आगमन पर महाराज ने ज्यादा गौर नहीं फरमाया। अपने चेहरे का कोण थोड़ा सा घुमा कर ऋषि कुमार के चेहरे पर मोड़ा और पूर्ववत अपनी पुरानी मुद्रा में लौट आये। ऋषि कुमार कुछ समझ ही नहीं सके कि ये हुआ क्या? अपने माथे पर उभर आई सिलवटों को महाराज के माथे की सिलवटों से से मिलाने का प्रयास करते हुए अपने मोबाइल पर बज रहे गीत को बन्द कर परेशानी के भावों को अपने स्वर में घोल कर पूछा-‘‘क्या हुआ महाराज? किसी चिन्ता में हैं अथवा चिन्तन कर रहे हैं?

महाराज ने अपने सिर को हाथ की पकड़ से मुक्त किया और फिर दोनों हाथों की उँगलियाँ बालों में फिरा कर बालों को बिना कंघे के सवारने का उपक्रम किया। खड़े होकर महाराज ने फिल्मी अंदाज में कमरे का चक्कर लगा कर स्वयं को खिड़की के सामने खड़ा कर दिया। ऋषि कुमार द्वारा परेशानी को पूछने के अंदाज ने महाराज को दार्शनिक बना दिया-‘‘अब काहे का चिन्तन ऋषि कुमार? चिन्तन तो इस व्यवस्था ने समाप्त ही कर दिया है। अब तो चिन्ता ही चिन्ता रह गई है।’’

ऋषि कुमार महाराज के दर्शन को सुनकर भाव-विभोर से हो गये। आँखें नम हो गईं और आवाज भी लरजने लगी। वे समझ नहीं सके कि ऐसा क्या हो गया कि महाराज चिन्तन को छोड़ कर चिन्ता वाली बात कर रहे हैं? अपनी परेशानी को सवाल का चोला ओढ़ा कर महाराज की ओर उछाल दिया। महाराज ने तुरन्त ही उसका निदान करते हुए कहा-‘‘कुछ नहीं ऋषि कुमार, हम तो लोगों के तौर-तरीकों, नई-नई तकनीकों के कारण परेशान हैं। समझो तो हैरानी और न समझो तो परेशानी। अब बताओ कि ऐसे में चिन्तन कैसे हो?

ऋषि कुमार समझ गये कि महाराज की चिन्ता बहुत व्यापक स्तर की नहीं है। ऋषि कुमार के ऊपर आकर बैठ चुका चिन्ता का भूत अब उतर चुका था। वे एकदम से रिलेक्स महसूस करने लगे और बेफिक्र अंदाज में महाराज के पास तक आकर थोड़ा गर्वीले अंदाज में बोले-‘‘अरे महाराज! हम जैसे टेक्नोलोजी मैन के होते आपको परेशान होना पड़े तो लानत है मुझ पर।’’ महाराज ने ऋषि कुमार के चेहरे को ताका फिर इधर-उधर ताकाझाँकी करके बापस खिड़की के बाहर देखने लगे। महाराज के बाहर देखने के अंदाज को देख ऋषि कुमार ने भी अपनी खोपड़ी खिड़की के बाहर निकाल दी।

अच्छी खासी ऊँचाई वाली इस इमारत की सबसे ऊपर की मंजिल की विशाल खिड़की से महाराज अपने दोनो साम्राज्य-स्वर्ग और नर्क-पर निगाह डाल लेते हैं। ऋषि कुमार को लगा कि समस्या कुछ इसी दृश्यावलोकन की है। अपनी जिज्ञासा को प्रकट किया तो महाराज ने नकारात्मक ढंग से अपनी खोपड़ी को हिला दिया।

‘‘कहीं स्वर्ग, नर्क के समस्त वासियों के क्रिया-कलापों के लिए लगाये गये क्लोज-सर्किट कैमरों में कोई समस्या तो नहीं आ गई?’’ ऋषि कुमार ने अपनी एक और चिन्ता को प्रकट किया। महाराज के न कहते ही ऋषि कुमार ने इत्मीनान की साँस ली। सब कुछ सही होना ऋषि कुमार की कालाबाजारी को सामने नहीं आने देता है। ‘‘फिर क्या बात है महाराज, बताइये तो? आपकी परेशानी मुझसे देखी नहीं जा रही।’’ ऋषि कुमार ने बड़े ही अपनत्व से महाराज की ओर चिन्ता को उछाल दिया।

महाराज ऋषि कुमार की ओर घूमे और बोले-‘‘बाहर देख रहे हो कितनी भीड़ आने लगी है अब मृत्युलोक से। मनुष्य ने तकनीक का विकास जितनी तेजी से किया उतनी तेजी से मृत्यु को भी प्राप्त किया। अब दो-चार, दो-चार की संख्या में यहाँ आना नहीं होता; सैकड़ों-सैकड़ों की तादाद एक बार में आ जाती है। कभी ट्रेन एक्सीडेंट, कभी हवाई जहाज दुर्घटना, कभी बाढ़, कभी भू-स्खलन, कभी कुछ तो कभी कुछ........उफ!!! कारगुजारियाँ करे इंसान और परेशान होते फिरें हम।’’

ऋषि कुमार हड़बड़ा गये कि महाराज के चिन्तन को हो क्या गया? इंसान की मृत्यु पर इतना मनन, गम्भीर चिन्तन? अपनी जिज्ञासा को महाराज के सामने प्रकट किया तो महाराज ने समस्या मृत्यु को नहीं बताया। महाराज के सामने समस्या थी स्वर्ग तथा नर्क के बँटवारे की। ऋषि कुमार ने अपनी पेटेंट करवाई धुन ‘नारायण, नारायण’ का उवाच किया और महाराज से कहा कि इसमें चिन्ता की क्या बात है, हमेशा ही अच्छे और बुरे कार्यों के आधार पर स्वर्ग-नर्क का निर्धारण होता रहा है; अब क्या समस्या आन पड़ी?

महाराज ने अपने पत्ते खोल कर स्पष्ट किया कि ‘महाराजाधिराज ने युगों के अनुसार कार्यों का लेखा-जोखा तैयार कर रखा है। चूँकि भ्रष्टाचार, आतंक, झूठ, मक्कारी, हिंसा, अत्याचार, डकैती, बलात्कार, अपराध, रिश्वतखोरी, अपहरण आदि-आदि कलियुग के प्रतिमान हैं, इस दृष्टि से जो भी इनका पालन करेगा, जो भी इन कार्यों को पूर्ण करेगा वही सच्चरित्र वाला, पुण्यात्मा वाला होगा शेष सभी पापी कहलायेंगे, बुरी आत्मा वाले कहलायेंगे............’

‘‘.......तो महाराज, फिर चिन्ता कैसी? जो पुण्यात्मा हो उसे स्वर्ग और जो पापात्मा हो उसे नर्क में भेज दंे, सिम्पल सी बात।’’ ऋषि कुमार ने महाराज के शब्दों के बीच अपने शब्दों को घुसेड़ा। अपनी बात को कटते देख महाराज ने भृकुटि तानी और इतने पर ही ऋषि कुमार की दयनीय होती दशा देख थोड़ा नम्र स्वर में बोले-‘‘कितनी बार कहा है कि बीच में मत टोका करो, पर नहीं। यदि स्वर्ग-नर्क का निर्धारण इतना आसान होता तो समस्या ही क्या थी।’’

ऋषि कुमार को अपनी गलती का एहसास हुआ और अबकी वे बिना बात काटे महाराज की बात सुनने को आतुर दिखे। महाराज ने उनसे बीच में न टोकने का वचन लेकर ही बात को आगे बढ़ाने के लिए मुँह खोला-‘‘समस्या यह है कि धरती से जो भी आता है वह भ्रष्टाचार, आतंक, बलात्कार, रिश्वतखोरी, मक्कारी, अत्याचार आदि गुणों में से किसी न किसी गुण से परिपूर्ण होता है। ऐसे में महाराजाधिराज के बनाये विधान के अनुसार उसे स्वर्ग में भेजा जाना चाहिए किन्तु स्वर्ग की व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाये रखने के लिए ऐसे लोगों में अन्य दूसरे गुणों-दया, ममता, करुणा, अहिंसा, धर्म आदि-को खोज कर उन्हें नर्क में भेज दिया जाता है।’’ तभी महाराज ने देखा कि ऋषि कुमार अपने मोबाइल के की-पैड पर उँगलियाँ नचाने में मगन हैं। ‘‘क्या बात है ऋषि कुमार, हमारी बातें सुन कर बोर होने लगे?’’ ‘‘नहीं, नहीं महाराज, ऐसा नहीं है। हम तो मोबाइल स्विच आफ कर रहे थे ताकि आपकी बातों के बीच किसी तरह का व्यवधान न पड़े।’’ ऋषि कुमार अपनी हरकत के पकड़ जाने पर एकदम से हड़बड़ा गये।

महाराज ने ऋषि कुमार की ओर से पूरी संतुष्टि के बाद फिर से मुँह खोला-‘‘पहले स्थिति तो कुछ नियंत्रण में थी किन्तु जबसे धरती से राजनीतिक व्यक्तियों का आना शुरू हुआ है तबसे समस्या विकट रूप धारण करती जा रही है। इन नेताओं में तो किसी दूसरे गुण को खोजना भूसे में सुई खोजने से भी कठिन है। इस कारण स्वर्ग की व्यवस्था भी दिनोंदिन लचर होती जा रही है। सब मिलकर आये दिन किसी न किसी बात पर अनशन, धरना, हड़ताल आदि करने लगते हैं। किसी दिन ज्ञापन देने निकल पड़ते हैं। अब यही सब मिल कर हमारे अधीनस्थों को चुनाव के लिए, लाल बत्ती के लिए उकसा रहे हैं।’’ महाराज ने दो पल का विराम लिया और कोने में रखे फ्रिज में से ठंडी बोतल निकाल कर मुँह में लगा ली। गला पर्याप्त ढंग से ठंडा करने के बाद उन्होंने ऋषि कुमार की ओर देखा। ऋषि कुमार ने पानी के लिए मना कर आगे जानना चाहा।

महाराज धीरे-धीरे चलकर ऋषि कुमार के पास तक आये और उनके कंधे पर अपने हाथ रखकर समस्या का समाधान ढूँढने को कहा-‘‘कोई ऐसा उपाय बताओ ऋषि कुमार जिससे इन सबको स्वर्ग की बजाय नर्क में भेजा जा सके और यहाँ के लिए बनाया महाराजाधिराज का विधान भी भंग न हो।’’

ऋषि कुमार महाराज की समस्या को सुनकर चकरा गये। महाराज की आज्ञा लेकर पास पड़ी आराम कुर्सी पर पसर गये। दो-चार मिनट ऋषि कुमार संज्ञाशून्य से पड़े रहने के बाद उन्होंने आँखें खोलकर महाराज की ओर देखा। महाराज को चुप देख ऋषि कुमार आराम से उठे और बोले-‘‘महाराज धरती के नेताओं की समस्या तो बड़ी ही विकट है। उनसे तो वहाँ के मनुष्यों द्वारा बनाये विधान के द्वारा भी पार नहीं पाया जा सका है। बेहतर होगा कि मुझे कुछ दिनों के लिए कार्य से लम्बा अवकाश दिया जाये जिससे कि विकराल होती इस समस्या का स्थायी समाधान खोजा जा सके। तब तक एकमात्र हल यही है कि धरती पर नेताओं को हाथ भी न लगाया जाये। बहुत ही आवश्यक हो तो उनके स्थान पर आम आदमी को ही उठाया जाता रहा जाये।’’ इतना कहकर ऋषि कुमार महाराज की आज्ञा से बाहर निकले और अपनी मनपसंद रिंगटोन ‘नारायण, नारायण’ गाते हुए वहाँ से सिर पर पैर रखकर भागते दिखाई दिये।

मृत्यु....




ये कैसी अनजानी सी आहट आई है ;
मेरे आसपास .....
ये कौन नितांत अजनबी आया है मेरे द्वारे ...

मुझसे मिलने
मेरे जीवन की , इस सूनी संध्या में ;
ये कौन आया है ….

अरे ..तुम हो मित्र ;
मैं तो तुम्हे भूल ही गया था,
जीवन की आपाधापी में  !!!

आओ प्रिय ,
आओ !!!
मेरे ह्रदय के द्वार पधारो,
मेरी मृत्यु...
आओ स्वागत है तुम्हारा !!!

लेकिन ;
मैं तुम्हे बताना चाहूँगा कि,  
मैंने कभी प्रतीक्षा नहीं की तुम्हारी ;
न ही कभी तुम्हे देखना चाहा है !

लेकिन सच तो ये है कि ,
तुम्हारे आलिंगन से मधुर कुछ नहीं
तुम्हारे आगोश के जेरे-साया ही  ;
ये ज़िन्दगी तमाम होती है .....

मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ ,
कि ;  
तुम मुझे बंधन मुक्त करने चले आये ;

यहाँ …. कौन अपना ,कौन पराया ,
इन्ही सच्चे-झूठे रिश्तो ,
की भीड़ में,
मैं हमेशा अपनी परछाई खोजता था !

साँसे कब जीवन निभाने में बीत गयी,
पता ही न चला ;
अब तुम सामने हो;
तो लगता है कि,  
मैंने तो जीवन को जाना ही नहीं…..

पर हाँ , मैं शायद खुश हूँ ,
कि; मैंने अपने जीवन में सबको स्थान दिया !
सारे नाते ,रिश्ते, दोस्ती, प्रेम….
सब कुछ निभाया मैंने …..
यहाँ तक कि ;
कभी कभी  ईश्वर को भी पूजा मैंने ;
पर तुम ही बताओ मित्र ,
क्या उन सबने भी मुझे स्थान दिया है !!!

पर ,
अब सब कुछ भूल जाओ प्रिये,
आओ मुझे गले लगाओ ;
मैं शांत होना चाहता हूँ !
ज़िन्दगी ने थका दिया है मुझे;
तुम्हारी गोद में अंतिम विश्राम तो कर लूं !

तुम तो सब से ही प्रेम करते हो,
मुझसे भी कर लो ;
हाँ……मेरी मृत्यु
मेरा आलिंगन कर लो !!!

बस एक बार तुझसे मिल जाऊं ...

फिर मैं भी इतिहास के पन्नो में ;
नाम और तारीख बन जाऊँगा !!
फिर
ज़माना , अक्सर कहा करेंगा कि 
वो भला आदमी था ,
पर उसे जीना नहीं आया ..... !!!

कितने ही स्वपन अधूरे से रह गए है ;
कितने ही शब्दों को ,
मैंने कविता का रूप नहीं दिया है ;
कितने ही चित्रों में ,
मैंने रंग भरे ही नहीं ;
कितने ही दृश्य है ,
जिन्हें मैंने देखा ही नहीं ;
सच तो ये है कि ,
अब लग रहा है कि मैंने जीवन जिया ही नहीं


पर स्वप्न कभी भी तो पूरे नहीं हो पाते है
हाँ एक स्वपन ,
जो मैंने ज़िन्दगी भर जिया है ;
इंसानियत का ख्वाब ;
उसे मैं छोडे जा रहा हूँ ...

मैं अपना  वो स्वप्न इस धरा को देता हूँ......


गुरुवार, 28 जनवरी 2010

“कुहरा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)


15012010052 (1)2
आस-पास है बहुत अंधेरा,
देखो हुआ सवेरा!
सूरज छुट्टी मना रहा है,
कुहरा कुल्फी जमा रहा है,
गरमी ने मुँह फेरा!
देखो हुआ सवेरा!
भूरा-भूरा नील गगन है,
गीला धरती का आँगन है,
कम्बल बना बसेरा!
देखो हुआ सवेरा!
मूँगफली के भाव बढ़े हैं,
आलू के भी दाम चढ़े हैं,
सर्दी का है घेरा!
देखो हुआ सवेरा!

क्योंकि यहाँ संस्कृति, मर्यादा एवं परम्पराओं का कोई डर नहीं है----(मिथिलेश दुबे)

समाज में वेश्या की मौजूदगी एक ऐसा चिरन्तन सवाल है जिससे हर समाज, हर युग में अपने-अपने ढंग से जूझता रहा है। वेश्या को कभी लोगों ने सभ्यता की जरूरत बताया, कभी कलंक बताया, कभी परिवार की किलेबंदी का बाई-प्रोडक्ट कहा और सभी सभ्य-सफेदपोश दुनिया का गटर जो ‘उनकी’ काम-कल्पनाओं और कुंठाओं के कीचड़ को दूर अँधेरे में ले जाकर डंप कर देता है। और, इधर वेश्याओं को एक सामान्य कर्मचारी का दर्जा दिलाए जाने की कवायद भी शुरू है। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ है कि समाज अपनी पूरी इच्छाशक्ति के साथ उन्मूलन के लिए कटिबद्ध हो खड़ा हो जाए; तमाम तरह के उत्पीड़न-दमन और शोषण का शिकार वेश्याएँ उन्मूलन के नाम पर जरूर होती रही हैं। आज स्थिति विपरीत है। वेश्यावृत्ति एवं फ्लाईंग वेश्याएँ बढ़ रही हैं। आज वेश्याएँ बहुत ज्यादा हैं, ग्राहक कम हैं, इस कारण वेश्याएँ स्वयं को 20-20 रुपयों में मिनटों के हिसाब से नीलाम कर रही हैं। क्या कहा जाए इसे ? सभ्यता का अन्त या मनुष्यता का चरम पतन, कि आज देह की सजी दुकानों में देह एक डिपार्टमेंटल स्टोर बन गई है जहाँ नारी अपने अलग-अलग अंगों का घंटों और मिनटों के हिसाब से अलग-अलग सौदा कर रही है ! इस देह बाजार का इतना यंत्रीकरण हो चुका है कि सभी मानवीय अनुभूतियाँ और मर्यादाएँ स्वाहा हो चुकी हैं। मानव को ईश्वर की सर्वोत्तम भेंट प्रेम वहाँ सामूहिक व्यभिचार में बदल चुका है। एक कमरे में तीन-तीन पुरुषों के साथ कोई एक भाड़े पर....बारी-बारी से। खुलेआम। इन्हीं लालबत्ती इलाकों में कहीं जगह की कमीं के चलते एक ही कमरे में कपड़ा टाँगकर.....। कहीं पॉकेट में बीस का नोट लिए कोई स्कूली बालक इन बाजारों में। कहीं गाड़ी में बैठाकर कोई रईसजादा गाड़ी में ही..।

इन सत्यों तक पहुँचने के लिए न सिर्फ परिक्रमाएँ लगानी पड़ीं, वरन् इनका विश्वास भी जीतना पड़ा जो कि कई बार बहुत ही जानलेवा साबित हुआ। वेश्याएँ अपने-अपने बारे में बताना नहीं चाहतीं, अपना सर्वस्व गँवाकर भी, अपनी इज्जत का ड़र अपने पेशे के खुलासा हो जाने का डर इनकी आत्मा से चिपका रहता है, विशेषकर जो आस-पास के गाँवों से आई हुई हैं, या जो पार्टटाइम या फ्लाईंग वेश्याएँ हैं। नारी का अर्थ यदि सृजन, प्रकृति और सम्पूर्णता है तो आज इस बाजार में तीनों नीलाम हो रहे हैं। और, यह नीलामी जीवन की नसतोड़ यंत्रणाओं और भुखमरी की कोख से उपजती है, जाने कैसे एक आम धारणा लोगों में है कि वेश्याएँ बहुत ठाट-बाट से रहने के लिए यह रास्ता अपनी इच्छा से पकड़ती हैं। यह सत्य उतना ही है जितना पहाड़ के सामने राई। 85 प्रतिशत वेश्यावृत्ति जीवन की चरम त्रासदी में भूख के मोर्चे के विरुद्ध अपनाई जाती है। 10 प्रतिशत वेश्यावृत्ति धोखाधड़ी से उपजती है, यह धोखाधड़ी प्रेम के झूठे वादे, नौकरी प्रलोभन, शहरी चकाचौंध से लेकर एक उच्च और सम्मानित जीवन के सब्ज़बाग दिखाने तक होती है। असन्तुलित विकास, बेकारी, उजड़ते गाँव पारम्परिक शिल्प और घरेलू उद्योगों के विलुप्त हो जाने से शहरों की तरफ बढ़ता पलायन....आदि संभावनापूर्ण ‘इनपुट’ हैं इन लालबत्ती इलाकों के। इन लालबत्ती इलाकों की संख्या खतरनाक गति से बढ़ रही है। पहले गिने इलाके थे और वेश्याएँ भी शाम ढले निकलना शुरू होती थीं। आज इलाके बहुत बढ़ गए हैं, और सुबह से लेकर गहराती रात तक की गलियों के मुहाने पर ग्राहकों के इन्तजार में प्रतीक्षा करतीं और कमर दु:खाती जीवन से थकी-ऊबी, लिपी-पुती किशोरियाँ मिल जाएँगी। राष्ट्रीय महिला आयोग, 95-96 के अनुसार भारत के महानगरों में दस लाख से भी अधिक वेश्याएँ हैं पिछले साल से इसमें 20 प्रतिशत इजाफा हुआ है। इस समाचार पर गंभीर विचार करना तो दूर सम्भ्रान्त वर्ग यह मान बैठा है कि वेश्यावृत्ति बन्द नहीं हो सकती। एक बौद्धिक से पूछा गया, ‘क्या वेश्या उन्मूलन संभव है ? उसने जवाब दिया, ‘हाँ संभव है, पर वह उसी प्रकार का होगा जिस प्रकार की ‘‘सोसाइटी विदाउट ए गटर।’’

इस भावशून्यता एवं भावनात्मक क्षरण के जवाब में यही कहा जा सकता है कि जनाब कभी यही तर्क दास प्रथा के लिए दिये जाते थे। भगवान बचाए इस देश को, आज वेश्या-उन्मूलन, कम से कम सेकेंड़ जेनरेशन वेश्यावृत्ति,जीवन के दूसरे विकल्प, नयी शुरूआत की बातें तो दूर, कई नारी संगठन पुरजोर स्वरों में यह माँग उठा रहे हैं कि वेश्याओं को यौनकर्मी एवं श्रमिक का दर्जा दिया जाए और वेश्यावृत्ति को उद्योग का।कलकत्ते के साल्ट लेक स्टेडियम में फरवरी 2001 में वेश्याओं के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन यह देखकर मैं भौचक्क रह गया था संगठनों से मंत्र पाकार सभी वेश्याएँ अपने सीने पर ‘वी आर वर्कर्स’ का बैज लगाए स्वयं को गौरवान्वित कर रहीं थीं।यही मतिभ्रम स्वयं को ही उत्पाद बनाने की माँग,बाजार में कॉमोडिटी’बनने की आकांक्षा उन्हें किन अँधी सुरंगों में भटकाएगी ? इस पर गम्भीर विचार किया जाना चाहिए कि किस प्रकार के संगठन नारी की अन्तर्निहित गरिमा एवं प्रेरणा के अन्त:स्रोत्रों को ही दाँव पर लगा रहे हैं! पिछली सदी ने कई क्रान्तियाँ देखीं। आम आदमी को इंसान की गरिमा देने के लिए रूस, चीन, क्यूबा और वियतनाम में क्रान्तियाँ हुई, पर इन लालबत्ती इलाकों का अँधेरा घना ही होता जा रहा है क्योंकि इनमें आम आदमी समझा नहीं जाता है। महिला संगठन इन्हें उत्पाद बनाने पर तुले हैं। सरकारी खातों में ये भिखारियों के समक्ष हैं, इनकी आय पर कोई आयकर नहीं लगाया जाता क्योंकि यह अनैतिक ढंग से कमाया जाता है। वोट देने का अधिकार होने पर भी ये वोट नहीं दे पातीं क्योंकि सरकारी कर्मचारी इन गंदी एवं बदनाम गलियों में जाकर इनके नामों को सूची में डालने की जहमत नहीं उठाते और सबसे बढकर भद्र समाज इन्हें बुरी औरत एवं कुल्टा के रूप में देखता है पर यह सोचने की बात है कि अधिकांश वेश्याएँ बारह-तेरह वर्ष की उम्र में ही इन गलियों में धकेल दी जाती हैं, कुछ यहीं आँख खोलती हैं।

प्यार और संरक्षण से वंचित, अपने स्व और गहराइयों से दूर, ऐसी अर्द्धविकसित और अशिक्षित महिलाएँ, हर रात जिनकी देह का ही नहीं, आत्मा का भी चीरहरण होता हो, ऐसी महिलाएँ जीवन आस्था के आलोक-बिन्दु कहाँ से पाएँ जो स्त्री को स्त्री बनाते हैं ? यह वेश्याओं की एक रहस्यमय दुनिया है। शताब्दियों का बोझ ढोती हुई। देह के मन्दिरों और देह के पुजारियों की यह वह दुनिया है जो वितृष्णा में लिप्टी एक अजीब सा सम्मोहन जगाती है। यहाँ जिन्दगी का शोर-शराबा है, हर गली के हर कमरे का अलग-अलग इतिहास.....जहाँ हर रात देह की नहीं उघड़ती है वरन् आत्माओं का भी चीर-हरण होता रहता है। यहाँ जीवन के कुरुप से कुरुप एवं भयंकर से भयंकर नग्न रूप मिल जाएँगे क्योंकि यहाँ संस्कृति, मर्यादा एवं परम्पराओं का कोई डर नहीं है। बन्धन नहीं है। इस रूप के बाजार का रूप विहीन जीवन अपने चरम रूप में आपके समक्ष खुलते थान की तरह बेशर्मी से खुला हुआ है।

बुधवार, 27 जनवरी 2010

अवतरण ---- (डा श्याम गुप्त )

यह कंचन सा रूप तुम्हारा,

निखर उठा सुरसरि धारा में,

जैसे सोनपरी सी कोई ,

हुई अवतरित सहसा जल में,

अथवा पद वंदन को उतरा ;

स्वयं इंदु ही गंगा- जल में ||

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

गर्व है उन पर राष्ट्र को

"साखो से टूट जायें, वो पत्ते नहीं है हम,
आंधी से कह दो कि , औकात में रहा करे "


कुछ ऐसा ही जज्बा है भारत के वीर सपूतों का । जिन्होंने भारत माता की रक्षा के लिए अपनी अन्तिम सांस तक अदम्य साहस शक्ति और वीरता का परिचय देते सभी खतरों से डट कर सामना किया । भारतीय गणतंत्र के सभी नागरिकों को गर्व है भारत के इन सपूतों पर । इन वीरो नें भारत माता के विरुद्ध उठने वाली किसी भी साजिश को साकार रुप नहीं लेने दिया ।

वीरो को समर्पित ये रचना -------

गर्व है उन पर राष्ट्र को
जो आज प्राप्त हैं वीरगति को
गूंजती है तालियां नाम पर उनके
आखें छलकती हैं साहस पर उनकें

क्या जोश था इन वीरों का
जो सामने से ये लड़े
न खौफ था मौत का,
न डरे लड़ते रहें, अन्तिम सांस तक
वीरता के साथ ही
बीरगति को प्राप्त की

उल्लास है, हर्ष है
खामोश सा हवाओं में
दर्द तो है हमे भी ऐ शहीद
और गर्व है भारतीय को
कारनामा जो तुमने किया

शत-शत नमन् करता है भारत
जो ऐसे वीरों को जन्म दिया।।

रविवार, 24 जनवरी 2010

बसंत --- (डा श्याम गुप्त )

गायें कोयलिया तोता मैना बतकही करें ,
कोपलें लजाईं , कली कली शरमा रही |
झूमें नव पल्लव, चहक रहे खग वृन्द ,
आम्र बृक्ष बौर आये, ऋतु हरषा रही|
नव कलियों पै हैं, भ्रमर दल गूँज रहे,
घूंघट उघार कलियाँ भी मुस्कुरा रहीं |
झांकें अवगुंठन से, नयनों के बाण छोड़ ,
विहंस विहंस , वे मधुप को लुभा रहीं ||


सर फूले सरसिज, विविध विविध रंग,
मधुर मुखर भृंग, बहु स्वर गारहे |
चक्रवाक वक् जल कुक्कुट ओ कलहंस ,
करें कलगान, प्रात गान हैं सुना रहे |
मोर औ मराल,लावा, तीतर चकोर बोलें,
वंदी जन मनहुं, मदन गुण गा रहे |
मदमाते गज बाजि ऊँट, वन गाँव डोलें,
पदचर यूथ ले, मनोज चले आरहे ||


पर्वत शिला पै गिरें, नदी निर्झर शोर करें ,
दुन्दुभी बजाती ज्यों, अनंग अनी आती है |
आये ऋतुराज, फेरी मोहिनी सी सारे जग,
जड़ जीव जंगम मन, प्रीति मदमाती है |
मन जगे आस, प्रीति तृषा मन भरमाये ,
नेह नीति रीति, कण कण सरसाती है |
ऐसी बरसाए प्रीति रीति, ये बसंत ऋतु ,
ऋषि मुनि तप नीति, डोल डोल जाती है ||


लहराए क्यारी क्यारी,सरसों गेहूं की न्यारी,
हरी पीली ओडे साड़ी, भूमि इठलाई है |
पवन सुहानी, सुरभित सी सुखद सखि !
तन मन हुलसे, उमंग मन छाई है |
पुलकि पुलकि उठें, रोम रोम अंग अंग,
अणु अणु प्रीति रीति , मधु ऋतु लाई है |
अंचरा उड़े सखी री,यौवन तरंग उठे,
ऐसी मदमाती सी, बसंत ऋतु आई है ||

( घनाक्षरी छंद )

शनिवार, 23 जनवरी 2010

झूठा सच बनाम समाजशास्त्र---[कहानी ] ---"अनिल कान्त जी"

मास्टर जी कक्षा में ब्लैक बोर्ड के सामने हाथ में डंडा पकड़े हुए किसी चुनाव में दिए जाने वाले भाषण के समय मंत्री की तरह दहाड़ रहे हैं और ख़ुद को शेर से कम नहीं समझते हुए पूँछ रहे है कि बताओ "कि सतहत्तर, अठहत्तर और उनहत्तर में से कौन सी संख्या बड़ी है ।" सब बच्चों को ऐसे सांप सूंघ गया जैसे कि जिला अधिकारी की बैठक में भाग लेने वाले नीचे के अधिकारी और बाबुओं को सूंघ जाता है.

मास्टर जी फिर से दहाड़ते हैं कि "क्यों खाने के वक्त तो ये मुंह बड़ी जल्दी खुल जाता है ? सबेरे सबेरे आ जाते हो अपनी अपनी नाँद भर भर के और अब देखो तो किसी का मुँह नहीं खुल रहा है ।" कक्षा में उपस्थित ज्यादातर बच्चे उंघाह रहे हैं, कुछ जम्हाई ले रहे हैं, जैसे कि किसी मंत्री के लंबे दिए जाने वाले भाषण में किए हुए वादों के वक्त उनके सहयोगी साथीगण ये सोच जम्हाई लेते रहते हैं कि कर दो भाई जितने वादे करने हैं, कौन सा पूरा करना है ? जो मन में आए बस बक दो फटाफट.

मास्टर जी एक बच्चे को खड़ा कर लेते हैं, इशारा करते हुए बोलते हैं "हाँ भाई तुम" उसके अगल बगल वाले बच्चे ख़ुद की तरफ़ देखते हैं फिर मास्टर जी की तरफ़ और ये सोच डरते हैं कि कहीं हमें खड़ा तो नहीं कर रहे । हाँ तुमसे ही कहा रहा हूँ " क्या नाम है तुम्हारा श्याम ?" वो लड़का खड़ा हो जाता है और बोलता है "नहीं मास्साब, रामभरोसे" सुनकर मास्टर जी बोलते हैं "अब जब तुम्हारा नाम ही रामभरोसे है तो तुम्हें क्या ख़ाक पता होगा, पर उस दिन तो तुमने अपना नाम श्याम बताया था" लड़का खड़ा खड़ा कहता है "नहीं मास्साब, मेरा नाम रामभरोसे ही है ।" मास्टर जी उसे घूरते हुए कहते हैं "अच्छा अच्छा, ठीक है-ठीक है । क्या नाम है तुम्हारे पिताजी का ?" लड़का बोलता है "जी रामलाल" मास्टर जी बोलते हैं "तुम रामभरोसे और वो रामलाल, बड़ा प्यार है राम से, तुम्हारी अम्मा का क्या नाम है ?" लड़का बोलता है "जी रामदुलारी और बाबा का रामदीन, चाचा का रामसनेही, रामकिशोर, रामदयाल, राम पाल" मास्टर जी चिढ़ते हुए बोलते हैं "रुक क्यों गया और कोई रह गया तो उसका भी बता दे" तो वो शुरू हो जाता है "रामकटोरी हमारी दादी, रामबिटिया, रामवती हमारी बहने" तब तक मास्टर जी चिल्लाते हैं "अब चुप बैठेगा कि दूँ एक खींच के, पूरा का पूरा घर राम से जुड़ा हुआ लगता है, जरूर ये उस शास्त्री का किया धारा होगा उसी के खानदान ने तुम लोगों के ये नाम धरे होंगे"

मास्टर जी फिर से एक बच्चे की तरफ़ इशारा करते हुए कहते हैं "हाँ तुम बताओ, कौन सी संख्या बड़ी है ?" लड़का खड़ा खड़ा सिर खुजलाने लगता है, कभी ऊपर देखता है और फिर कभी नीचे। तब तक मास्टर जी कहते हैं "ऊपर क्या तुम्हारे दद्दा लिख कर छोड़ गए हैं कि कौन बड़ा है, आ जाते हैं बिना मुँह धोये पढने, रात का बचा हुआ जो भी होता है भर आते हो तेंटुये (गले) तक और यहाँ आकर सोते रहते हो दिन भर" कुछ देर में मास्टर जी के हाथों 4-6 बच्चे ठुक चुके होते हैं फिर मास्टर जी दहाड़ते हुए ऐसे बताते हैं कि ये सिर्फ़ उन्हें ही पता था कि "अठहत्तर बड़ी है गधों"

थोड़ी देर बाद मास्टर जी दूसरी कक्षा में पहुँच कहते हैं कि "दहेज़ प्रथा के ऊपर जो निबंध लिख कर लाने को कहा था वो सब अपनी अपनी कापियाँ दिखाओ" सब बच्चे अपनी अपनी कापियाँ जमा कर देते हैं । मास्टर जी यूँ ही कोई भी काँपी उठा कर देखने लग जाते हैं, थोड़ी देर पढ़ते हैं और फिर कहते हैं "किसकी है ये काँपी ?" नाम पढ़ते हैं और चिल्लाते हैं कि "खड़े हो जाओ", लड़का खड़ा हो जाता है । मास्टर जी कहते हैं "ये क्या लिख रहे हो तुम, कुछ भी अंट शंट, दहेज़ प्रथा बहुत जनम जनम पुरानी प्रथा है, मेरे बापू मुझे रोज़ उलाहना देते हैं कि तू जितना चाहे मौज उड़ा ले . तेरे ब्याह के बखत तेरे दहेज़ में सब वसूल लूँगा । रामदीन के लड़के को बहुत अच्छा दहेज़ मिला है । वो रोज़ अपनी फटफटिया पर बाजार जाता है । जिस किसी की शादी में जितना दहेज़ आता है उसके लगन में उतनी ही अधिक बन्दूक से गोलियां चलती हैं, पिछले साल ही रामधन के लड़के के लगन के बखत गोली चल जाने से छत पर खड़ा बिर्जुआ ढेर हो गया था । जब लगन के बखत दहेज़ न मिले तो फेरे के बखत नाटक करने से बचा हुआ दहेज़ मिल जाता है । पर रामकिशोर के लड़के की शादी के बखत पूरी बारात को बाँध के डाल लिया था, जैसे तैसे उन्होंने छोड़ा और शादी भी नहीं की । वो तो नाक कट रही थी इस कारण उसी गाँव की कोई दूसरी लड़की से चट मंगनी और पट ब्याह कर डाले। हम भी सोचत हैं कि जल्दी से हमारा भी लगन हो जाए तो हम भी फटफटिया घुमाए पूरे गाँव में । " मास्टर जी उस लड़के के मुँह पर काँपी फैंक कर मारते हैं और उसे पास बुलाकर 8-10 खींच खींच के रसीद करते हैं, थोड़ी देर में वो रोता, भुनभुनाता, चुपचाप होकर अपनी जगह बैठ जाता है ।

मास्टर जी दूसरी काँपी उठाते हैं, थोड़ी देर पढ़ते हैं और फिर नाम पुकार कर खड़ा करते हैं । उसकी शक्ल की तरफ़ देखते हैं और कहते हैं "तुम वही रामदीन दूधवाले के लड़के हो ।" वो मुँह फाड़ कर खुश होते हुए बोलता है "हाँ उन्हीं का हूँ ।" मास्टर जी कहते हैं "कि तुमने ये क्या बकवास लिखा है । दहेज़ प्रथा हमारी संस्कृति है । इस प्रथा की वजह से हमारा पूरे संसार में बहुत नाम है । दहेज़ लेकर रामलखन, रामपाल, रामसुंदर, रामनिवास सबके सब गुलछर्रे उड़ा रहे हैं । उन्हें दहेज़ में बहुत मोटी रकम मिली तो अब वो जी खोल के ताश पत्ता खेलते हैं, पिच्चर देखते हैं, फटफटिया घुमाते हैं और बीडी पीकर मस्त रहते हैं । बापू कहते हैं कि दहेज़ तो लेना पड़ता है, नहीं तो समाज में हमारी नाक न कट जायेगी, कि देखो तो रामसिंह के लड़के को फूटी कौड़ी नहीं मिली, पूरा नाम मिटटी में मिल जाएगा और फिर पूरी जिंदगी तुझे अपनी उस लुगाई को बैठालकर खिलाना भी तो पड़ेगा । तो दहेज़ तो लेना ही पड़ता है बेटा । बापू सोचते हैं कि मेरे लगन में फटफटिया तो मिलेगी ही मिलेगी और 4-6 भैंस भी मिल ही जायेंगी । मैं भी सोच रहा हूँ कि जल्द से जल्द लगन हो तो फटफटिया लेकर खूब मौज उड़ायें और उन भैंसों का दूध बेचने बाजार जाएँ।" मास्टर जी गुस्से में आकर उस लड़के के पास पहुँच कर उसकी डंडे से सुताई कर देते हैं।

मास्टर जी फिर उन्हें समझाते हैं कि दहेज़ लेना बहुत बुरी बात है और ये हमारे समाज पर एक कलंक है । यह हमारे समाज को अन्दर ही अन्दर खोखला कर रहा है । इसी दौरान गाँव के रामसुख चाचा आ जाते हैं और वो मास्टर जी को इशारा करके बाहर बुलाते हैं । मास्टर जी बाहर जाते हैं तो रामसुख चाचा कहते हैं "कि पल्ले गाँव के कृष्णचंद जी आए है अपनी लड़की का रिश्ता आपके लड़के के लिए लेकर ।" मास्टर जी कहते हैं कि "वो तो पहले भी आ चुके हैं, मैंने उन्हें पहले ही इशारों ही इशारों में बता दिया था कि उतने कम पैसे में मैं अपने लड़के का लगन नहीं करूँगा, आख़िर हमारी भी कोई इज्ज़त है ।" रामसुख चाचा कहते हैं "अरे मैं इस बार उन्हें सब समझा लाया हूँ, वो सब मान गए हैं और जितना तुम चाहते हो उतना दहेज़ दे देंगे, बाकी चिंता काहे करते हो, हम हैं ना । " मास्टर जी मुस्कुरा जाते हैं ।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

अंर्तद्वंद....[कविता]......संदीप मिश्रा जी

आज कल जो भी दिखता है परेशान दिखता है,
वक्त ऐसा है बस इंसान ही नहीं दिखता है।
जहां देखो बस ऐतबार नहीं दिखता है,
इंसान कहता है बस प्यार नहीं मिलता है।

मालिक को मजदूर दिखता है, मजबूरी नहीं,
मजदूर को परिवार दिखता है पर प्यार नहीं मिलता है।
गांवों से लेकर शहरों तक इंकार ही दिखता है,
इकरार चाहिए तो वही अपना परिवार दिखता है।

जहां देखता हूं बस हर इंसान बेकरार दिखता है,
अकसर हर आदमी बस यही कहता है कि सब कुछ बिकता है।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

काव्य की एक विधा "अगीत" के नवीन छंद ’लयबद्ध अगीत[रचना]----डा श्याम गुप्त

(ये प्रेम-अगीत, अतुकांत काव्य की एक विधा "अगीत" के नवीन छंद ’लयबद्ध अगीत’ में निबद्ध हैं)

(१)
गीत तुम्हारे मैंने गाये,
अश्रु नयन में भर-भर आये,
याद तुम्हारी घिर-घिर आई;
गीत नहीं बन पाये मेरे।
अब तो तेरी ही सरगम पर,
मेरे गीत ढला करते हैं;
मेरे ही रस,छंद,भाव सब ,
मुझसे ही होगये पराये।

(२)
जब-जब तेरे आंसू छलके,
सींच लिया था मन का उपवन;
मेरे आंसू तेरे मन के,
कोने को भी भिगो न पाये ।
रीत गयी नयनों की गगरी,
तार नहीं जुड पाये मन के ;
पर आवाज मुझे देदेना,
जब भी आंसू छलकें तेरे।

(३)
श्रेष्ठ कला का जो मंदिर था,
तेरे गीत सज़ा मेरा मन;
प्रियतम तेरी विरह-पीर में ,
पतझड सा वीरान होगया।
जैसे धुन्धलाये शब्दों की,
धुन्धले अर्ध-मिटे चित्रों की;
कला बीथिका एक पुरानी।

(४)
तुम जो सदा कहा करतींथी,
मीत सदा मेरे बन रहना ;
तुमने ही मुख फ़ेर लिया क्यों,
मैने तो कुछ नहीं कहा था।
शायद तुमको नहीं पता था,
मीत भला कहते हैं किसको;
मीत शब्द को नहीं पढा था,
तुमने मन के शब्द-कोश में।

(५)
बालू से, सागर के तट पर,
खूब घरोंदे गये उकेरे;
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा लेगयी;
छोड गयी कुछ घोंघे-सीपी,
सजा लिये हमने दामन में।

(६)
तेर मन की नर्म छुअन को,
वैरी मन पहचान न पाया।
तेरे तन की तप्त चुभन को,
मैं था रहा समझता माया।
अब बैठा यह सोच रहा हूं,
तुमने क्यों न मुझे समझाया ।
ग्यान ध्यान तप योग धारणा,
में, मैंने इस मन को रमाया;
यह भी तो माया-संभ्रम है,
यूंही हुआ पराया तुमसे ॥

बुधवार, 20 जनवरी 2010

बसंत की फुहार में..................फागुन की बयार में [कविता ] - नीशू तिवारी

बसंत की फुहार में,

फागुन की बयान में,

आम के बौरों की सुगंध,

दूर -दूर तक फैली है,



कोयल की कूकें,

मधुरता घोलती हैं

खेतों में लहलहाती

गेंहूँ की बालियां,

और

सरसो के फूलों पर,

मडराती मक्खियां,

गुनगुनी धूप में आनंदित हैं।



पंछियों की चहचहाहट,

कलियों की किलकिलाहट,

भौंरों की गुनगुनाहट से

प्रकृति रंग चली है,



हवाएं मचल रही हैं,

घटाएं बदल रही है ,

प्यार बरस रहा है चारों तरफ,

बसंत की फुहार में,

फागुन की बयार में।

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

आशुतोष जी की दो रचनाएं " स्वपनः एक उधेड़बुन " और " पैबंद "



संक्षिप्त परिचयः-

कवि
' आशुतोष ओझा जी '
आपका जन्म भृगु मुनि की तपोभूमि और राजा बलि की कर्मभूमि बलिया ( उत्तर प्रदेश ) में सितंबर सन १९८३ को हुआ । आपकी प्रारंभिक शिक्षा सरस्वती शिशु मंदिर में हुई । स्नातक की शिक्षा जिले के सतीश चंद्र डिग्री में प्राप्त की । तत्पश्चात आपने देश की राजधानी से पत्रकारिता में स्नात्तकोत्तर किया।
पत्रकारिता की शुरूआत आकाशवाणी में कैपुअल एनांउसर से हुई । आपने राष्ट्रीय समाचार पर लोकमत के जरिये अखबार में कदम रखा । २००७ में राजस्थान पत्रिका से नई पारी शुरू की । वर्तमान में दिल्ली के समाचार पत्र " आज समाज " में बतौर उपसंपादक कार्यरत हैं।
आपके अनुसार कविताः- "वही है , जिसमें सरोकार है , चाहे वो किसी भी रूप में हो प्रेम , द्वेष , न्याय , अन्याय , विद्रोह, श्रद्धा , देशभक्ति इत्यादि ।।"

संपर्कः श्री जगमोहन मिश्र
बी-३०२, हारमोनी आपर्टमेंट
सेक्टर-२३, द्वारका दिल्ली
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आशुतोष जी की दो कविताएं


1-स्वप्नः
एक उधेड़बुन


स्वप्न देखता हूँ
उन्हें बुनता हूँ
कभी - कभी उसी में
उलझ जाता हूँ।
दम घुटता है
जोर से चिल्लाता हूँ।
चारों ओर बहुत शोर है
' मूक ' आवाज दब जाती है
अन्ततः
स्वयं से ' द्वंद' करता हूँ
कभी जीतता हूँ
कभी हारता हूँ
सुख और दुख
दोनों देखे,
सदैव दुख
भारी रहा।
'खुशी आई थी
कुछ समय के लिए
फिर नहीं लौटी।
अब भी इंतजार है
इसलिए
स्वप्न देखता हूँ
उन्हें बुनता हूँ।।



2- पैबंद


उनके दरख्तों को दरकते देख
खुश होता हूँ।
लेकिन
अपने पैबंद छुपाता हूँ।
बलूच और सिंध बन जाय
दिली इच्छा है
लेकिन,
तेलंगाना , बुंदेलखण्ड , गोरखालैण्ड
विदर्भ......के लिए
किसी के मरने
हिंसक आन्दोलन
और
तोड़-फोड़ का
खुद ही, इंतजार करता हूँ।

दरअसल यही
डिप्लोमेसी और डेमोक्रेसी है
विश्व में सबसे बड़ी
इस सम्मान और बोझ को
सहता हूँ,
इसलिए
हर पैबंद छुपाता हूँ।।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

तुम बिना महफ़िल सजाना क्या सही है ----(निर्मला कपिला)

बेवज़ह बातों ही बातों में सुनाना क्या सही है
भूला-बिसरा याद अफसाना दिलाना क्या सही है

कुछ न कुछ तो काम लें संजींदगी से हम ए जानम
पल ही पल में रूठ जाना और मनाना क्या सही है

मुस्करा ऐसे कि जैसे मुस्कराती हैं बहारें
चार दिन की ज़िन्दगी घुट कर बिताना क्या सही है

ख्वाब में आकर मुझे आवाज़ कोई दे रहा है
बेरुखी दिखला के उसका दिल दुखाना क्या सही है

तुम इन्हें सहला नहीं पाए मेरे हमदर्द साथी
छेड़ कर सारी खरोचें दिल दुखाना क्या सही है

अब बड़े अनजान बनते हो हमारी ज़िन्दगी से
फूल जैसी ज़िन्दगी को यूँ सताना क्या सही है

ज़िन्दगी का बांकपन खो सा गया जाने कहाँ अब
सोचती हूँ ,तुम बिना महफ़िल सजाना क्या सही है .

शनिवार, 16 जनवरी 2010

ये हक है मेरा

बहुत कुछ बदल जाने के बाद भी ,
आज न जाने क्यूँ तुम्हारी यादें वैसी ही हैं ,
जैसे की पहले हुआ करती थी ,
मुझे पता है कि तुमसे कह नहीं सकता कुछ भी ,
बता नहीं सकता अपनी बातों को ,
पर फिर भी खुद को ही अच्छा लगता है सोचना ये ,
जिसे तुमने आकर्षण कहा,
दोस्ती कहा
या
कभी प्यार का नाम दिया ,
उनमें से कोई रिश्ता आज कायम नहीं ।

मैं सोचता हूँ सारी पुरानी बातें ,
जिसमें केवल मैं होता था और तुम होती थी ,
जो अब झूठी लगती हैं ,
एक धोखा लगती हैं ,
ये सब सोच के दर्द सा होता
पर भी ,
ये दिल है कि तुमको ही याद करता हैं ,

खामोश रात में बंद आखें तुमको ही खोजती हैं ,

फिर दिन के उजाले में तुम कहीं गुम हो जाती हो ,
इस तरह से आना जाना खुद को नहीं भाता ,
पर
मजबूर हूँ मैं जो तुम्हारी यादो से आज भी नहीं निकल पाता,

कभी कसम खाता हूँ ,
फिर तोड़ देता हूँ उसको तुम्हारे लिए ,
जब अब ये पता है कि
तुम मेरी नहीं हो ,
कभी भूल जाने का वादा अब तो हर रोज ही तोड़ता हूँ ,
शायद कभी मिल जाओं तो बातऊगा तुमको सारी बातें दिल,
कहूँगा जज्बात दिल के ,
और जाने नहीं दूंगा इस बार मैं ,
ये जिद मेरी रहती है अपने आपसे ,
जबकि ये जानता हूँ- ये कल्पना है इसके सिवा कुछ भी नहीं ,
पर इस तरह सोच के खुद को , बहलाता हूँ ,
तुमको अपने करीब पाता हूँ ,
ये हक मेरा तुम नहीं छिन सकती,
ये तुम भी नहीं जानती ,
याद करता हूँ और करता रहूँगा ,
ये जानलो तुम ।