जिस की बातें अम्मा अब्बू अक्सर करते रहते हैं सरहद पार न जाने कैसा वो होगा पुरखों का घरसहमा सहमा हर इक चेहरा मंजर मंजर ख़ून में तरशहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घरतुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता हैतुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद परबेमोसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों केबेमोसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती परआ भी जा अब जाने वाले कुछ इन को भी चैन पड़े कब से तेरा रस्ता देखें छत आँगन दीवार-ओ-दर
बुधवार, 23 सितंबर 2009
सहमा सहमा हर इक चेहरा --------"जतिन्दर परवाज़"
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
5 comments:
जतिन्द्र परवाज़ जी को पढना हमेशा ही अच्छा लगता है इनकी कलम मे जादू है इस सुन्दर रचना के लिये आभार्
क्या बात है । बहुत खूब शानदार लेखन ।
मुझे आपका ये ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत खूबसूरती से आपने सजाया है! वाह बहुत खूब! इस शानदार और बेहतरीन रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
बहुत उम्दा रचना। बधाई.....
आपको नवरात्र की शुभकामनाएं। आपके और आपके परिवार की सुख शांति की मंगलकामना करता हूं। आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हों
एक टिप्पणी भेजें