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बुधवार, 23 सितंबर 2009

समय की नदी हू एक मै मौन ------- "किशोर"

एक मै मौन


तटस्थ मन्दिर की सूनी सीढीयो का


झिलमिलाता दृश्य लिए


या


पीपल की घनी बाहों से


झरे


पत्तो की शुष्क अधरों की प्यास लिए



मै बहती हू


खुद राह बनाती


तोड़ धरती की छाती


मोड़ से हर


आगे बढ़कर


लौट कर


फिर कभी नही आती



समय की नदी हू

एक मै मौन



गहराई से मेरा नाता है


सत्य की सतह का स्पर्श


जो नही कर पाता है


उसे इस


जग -जल मे


तैरना कहा सचमुच आता है



पारदर्शी देह के कांच मे अपने


मौसम के हर परिवर्तन का


अक्श लीये


सोचती


कभी थाम कर


सदैव रहू


बादलो के जल -मग्न छोर


धरा के जीवित पाषाणों की


लुभावनी आकृतियों के आकर्षण कों
छोड़


या


वन वृक्षो की जड़ो का


मेरे लिए


मोह का दृड़ नाता
तोड़



मै चाहती बहती रहू निरंतर
क्षण क्षण


कल कल की धुन की मधुरता


अपने एकांत के रेगिस्तान मे
घोल


समय की नदी हू
एक मै मौन

4 comments:

Admin ने कहा…

सीधे दिल के कोने में सिहरन उठ गयी आपकी बात सुन कर

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत खुब लिखा है भाई आपने। ..

खोरेन्द्र ने कहा…

SUNIL DOGRA जालि‍म
ji
shukriya

खोरेन्द्र ने कहा…

Mithilesh dubey
ji
shukriya