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शनिवार, 12 सितंबर 2009

हराम जादा - लघुकथा ( राज भटिया की )

आंखो देखी, कानो सुनी... लेकिन आज का सच
अरे कहा गये सब.... सुबह से एक रोटी नही मिली... एक बुजुर्ग
बहूं .. मिल जायेगी अभी समय नही...
अरे बहूं मेने कल शाम से कुछ नही खाया..
तो...
बुढा अपने बेटे की तरफ़ देखता है, ओर बेटा बेशर्मो की तरह से नजरे चुरा कर कहता है... बाऊ जी आप भी बच्चो की
तरह से चिल्लते है... थोडा सब्र क्यो नही करते??
बुढा... अपने बेटे से कमीने तुझे इस लिये पाल पोस कर बडा किया था....
तभी बहु की आवाज आती है ..... हराम जादे तू कब मरेगा... हमारी जान कब छोडेगा यह कुत्ता... सारा दिन भोंकने के
सिवा इसे कोई दुसरा काम नही.......
( जब कि यह परिवार उसी हराम जादे की पेंशन ही खाते है)
उसी पल इस बुजुर्ग ने खाना छोड दिया ओर करीब एक माह बाद भूख से तडप तडप कर मर गया...
ओर पेंशन आधी हो गई

11 comments:

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

राज जी यह लघुकथा आज तो सच में दिखाई ही पड़ जाती है । यह दुखद बात है पर सच्चाई यही है । धन्यवाद आपका ।

Unknown ने कहा…

बहुत ही सटीक चित्रण किया है इस लघुकथा में । बधाई सर जी

कामोद ने कहा…

दुखद ..

ऐसे लोग समाज में आज भी पाये जाते हैं।

निर्मला कपिला ने कहा…

भाटिया जी आज एक समाज पर एक सटीक रचना है । आभार

sunil patel ने कहा…

Good article. If moral values and spiritual teachings have been given to the children by parents, this will never happen.

Mithilesh dubey ने कहा…

मार्मिक रचना। भाटिया जी ने आज के समाज का बखूबी चित्रण किया है।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

गिरते जीवन-मूल्यों की एक और मिसाल.... अब तो भारत में भी वृद्धाश्रमों की वृद्धि होनी ही है!!!!!

Dipti ने कहा…

बहुत ज़्यादा नकारात्मक कहानी...

हें प्रभु यह तेरापंथ ने कहा…

बेहतरीन रचना के लिऍ आपका अभिनन्द!!!!!

♥♥♥♥♥♥

रामप्यारीजी से एक्सक्लुजीव बातचीत

Mumbai Tiger
हे! प्रभु यह तेरापन्थ

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत मार्मिक रचना !!

वाणी गीत ने कहा…

समाज में बुजुर्गों की दशा को रेखांकित करती मार्मिक रचना ..साथ ही शिकायत है उन बुजुर्गवारों से भी जो परिस्थितियों के आगे यूँ घुटने टेक देते हैं ..!!