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सोमवार, 21 सितंबर 2009

अजीब शख्श है जो ----------" डा० भूपेन्द्र "

अजीब शख्श है जो मेरे घर मे रहता है ,


नदी का तट है वो फिर भी नदी सा बहता है ,


तेज़ धूप में उसमें महक है फूलों की ,


अपना दर्द जो बस आंसुओं से कहता है ,


अपने चिटके हुए आइने में देखता दुनिया ,


एक ही उम्र मे सौ अक्स बन के रहता है ,


जहाँ हर एक के हैं बंद दरो दरवाजे ,



खुली सड़क पे मस्त मौज जैसा बहता है ,


जिनके ताज अजायबघरों मे रखे हैं ,


उन्ही बुजुर्गों के टूटे किलों सा ढहता है ,


उसका लिखा हुआ हर लफ्ज़ ग़ज़ल होता है ,


इस कदर वो अपने जोरो ज़बर सहता है //अजीब शक्श ...

6 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

सर्वप्रथम एक अच्छी कविता की वधाई
समझ सकता हूँ कि आप किसकी बात कर रहे है, उस अजीब शख्स को मेरा प्रणाम कहना !

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

डॉ. भूपेन्द्र साहब,

एक खूबसूरत गज़ल कही है, अशआर अच्छे और सीधे अपनी बात कह देते हैं।

जहाँ हर एक के हैं बंद दरो दरवाजे ,
खुली सड़क पे मस्त मौज जैसा बहता है

पसंद आया यह शे’र।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत ही सुन्दर कविता। भूपेन्द्र जी बहुत-बहुत बधाई...........

Manish Kumar ने कहा…

अपने चिटके हुए आईने में देखता दुनिया ,
एक ही उम्र मे सौ अक़्स बन के रहता है

वाह हुजूर क्या बात है !

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

तेज़ धूप में उसमें महक है फूलों की ,


अपना दर्द जो बस आंसुओं से कहता है ,..bahut achhi lagi aapki nazam..azeeb shakhs hai nraaz ho ke hansta hai.....

निर्मला कपिला ने कहा…

जहाँ हर एक के हैं बंद दरो दरवाजे ,
खुली सड़क पे मस्त मौज जैसा बहता है
अपने चिटके हुए आईने में देखता दुनिया ,
एक ही उम्र मे सौ अक़्स बन के रहता है
लाजवाब गज़ल है डाक्टर भुपेन्द्र जी को बधाई