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शनिवार, 5 सितंबर 2009

बंद आंखें ( कविता )

बंद करता हूं जब आंखे

सपने आखों में तैर जाते हैं ,

जब याद करता हूँ तुमको

यादें आंसू बनके निकल जाती हैं ,


ये खेल होता रहता है ,

यूं हर पल , हर दिन ही ,

तुम में ही खोकर मैं ,

पा लेता हूँ खुद को ,

जी लेता हूँ खुद को ,



बंद करता हूँ आंखें तो

दिखायी देती है तुम्हारी तस्वीर ,

सुनाई देती है तुम्हारी हंसी कानों में,

ऐसे ही तो मिलना होता है तुमसे अब।।



बंद कर आंखें देर तक,

महसूस करता हूँ तुमको ,

और न जाने कब

चला जाता हूँ नींद के आगोश में ,

तुम्हारे साथ ही ।।

6 comments:

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना प्रेम को दर्शाती हुई ।

निर्मला कपिला ने कहा…

सुन्दर प्रेमरस की अभिव्यक्ति बधाई

ओम आर्य ने कहा…

behad khubsoorat rachana......prem me dubi rachana

Mithilesh dubey ने कहा…

प्रेम की भाव भिगी बहुत ही सुन्दर रचना। बधाई

satyarafi ने कहा…

bahut hi achhi.

kush ने कहा…

very good