दहाडों को डरते देखा है,वसंत को भी झरते देखा हैअपने ह्रदय के एक कोने में,हमने कभी- कभी शब्दों को मरते देखा है।
रफ्तारों को थकते देखा है,
कलमों को भी रुकते देखा है,
अपनी आंखों के किनारों से
हमने कभी कभी शब्दों को बहते देखा है।
आधारों को भी ढहते देखा है,
तूफानों को भी, सहते देखा है,
रातों में उठ उठ कर,
हमने अपने शब्दों को टहलते देखा है।
राहों को खुद चलते देखा है,
साँसों को भी थमते देखा है,
अपनी बर्फीली सोंचों में भी,
हमने शब्दों को जलते देखा है।
भँवरे को कलियाँ, मसलते देखा है,
'करीब' को फासलों में बदलते देखा है,
अपने मन के रेगिस्तानों में भी,
हमने शब्दों को चरते देखा है।
आत्मा को भी मरते देखा है,
इश्वर को भी डरते देखा है,
हाँ! मेरी कोख में भी कभी शब्द हुआ करते थे,
मैंने इक इक करके, उन सबको मरते देखा है।
शुक्रवार, 14 अगस्त 2009
"दहाडों को डरते देखा है" - पंकज उपाध्याय
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1 comments:
बदली बनकर पीर बरसती
शब्दों में ढल आये भाव,
क्या कहते सुनते चलते हैं
च्प्पे - चप्पे मन की छाप ।
स-स्नेह
गीता
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