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रविवार, 9 अगस्त 2009

वेदना.............. .निरंकुश जी

मुझे नहीं है ज्ञात सखे,

किस कर्म में मैं सुख पाउँगा||
किस धर्मं का होकर जीवन भर, अपना धर्मं निभाऊंगा|
सत्य-पिपासा से बंधित मै,
नित्य नए आयाम ढूंढ़ता ||
नियमों के धरातल को कुरेदने की इच्छा रखता |
अवलोकन-हेतु बहुत कुछ है, संभवतः चराचर में ||
पर मेरी-मृगतृष्णा मुझको,
उसका भान न होने देती |
नेत्र-बंद, कर्ण-अविकसित,
मस्तिष्क अज्ञान-चरम पर है ||
ज्ञान-तंतु, सभी मूर्छित; ... संजीवनी-पिपासु हैं |
क्षीर-सिन्धु का नीर भी मेरे,
किसी काम न आ पाया |
इस दयनीय अवस्था में मै,
कैसे तुझको अपनाऊँ … ||
मैं अभी, खुद से अपरिचित; कैसे तेरा हो जाऊँ !

1 comments:

Unknown ने कहा…

आपकी यह रचना बेहद सुंदर लगी । शब्द चयन प्रभावित करते हैं ।।