एक,
जैसा जुड़ा रह ही गया हो जिन्दगी से
कभी दो या ज्यादा का ख्याल आया ही नही
घरों में
कुछ हमारे जैसे घरों में
एक ही पलंग/गद्दा होता था
रिजर्व पिताजी के लिये
और हम सब चार-छः जितने भी होते
बांट लेते जमीन अपने हिस्से की
माँ के साथ कथरियों(गोदड़ी) पर
टूथ ब्रश,
वो भी एक ही होता था
और बाकी सब
या तो चूल्हे से माँग लेते थे राख़/कोयला
या कभी दातून कर रहे होते थे
एक से, ज्यादा कुछ हो भी सकता है
हमारी कल्पनाओं में भी नही आया कभी
अंगोछा,
भी एक ही था,
जो पिताजी के इस्तेमाल के बाद ही
हमारे हिस्से में आता था क्र्मशः
कभी अधगीला या कभी कुछ ज्यादा
अपने हर इस्तेमाल के साथ
दे जाता था पीढी दर पीढी
हस्तांतरित होते संस्कार
और तहज़ीब एक रहने की
फ़िर कमाने वाले और
खाने वाले हाथों का
अनुपात सुधरा तो
लक्ष्मी ठहरने लगी घर
हम बदलने लगे
पहले अंगोछा बदला तौलिये में
फ़िर टॉवेल में
तब भी हमारी गिनती एक तक ही सीमित थी
आज,
मेरे बच्चे जब मुझसे माँगते है
अपने लिये अलग कमरा
प्रायवेसी के नाम पर / या
टॉवेल अपने लिये अलहदा
हाईजीन की देते हुये दुहाईयाँ
मुझे हैरत होती है अपने आप पर
कि हमने कैसे काट ली जिन्दगी
एक ज़मीन के टुकड़े पर/
एक ही टॉवेल में.
3 comments:
दे जाता था पीढी दर पीढी
हस्तांतरित होते संस्कार
और तहज़ीब एक रहने की
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हस्तांतरित अब पूर्णतया कब स्थानांतरित हो रहा है. एक तौलिया क्या अब तो एक साहचर्य भी आधुनिक संसकार को स्वीकार नही है.
इतने मार्मिक रचना को पढकर मै सुन्न हो गया हूँ
कई कोड से सोचने को विवश करती रचना.
{ Treasurer-T & S }
मुकेश जी बहुत ही शानदार कविता लगी आपकी । बधाई
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