चाहे कोई भी युग हो,प्रत्येक युग का भविष्य उसकी आगामी पीढ़ी पर ही निर्भर करता है। जिस युग की नई पीढ़ी जितनी अधिक शालीन, सुसंस्कृत, सुघड़ और शिक्षित होती है, उस युग के विकास की संभावनाएं भी उतनी ही अधिक रहती है। राष्ट्र, समाज और परिवार के साथ भी यही सिद्धांत घटित होता है। आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण या करणीय कार्य है भावी पीढी को संस्कारित करना।
अक्सर सुनने में आता है कि बाल्य मन एक सफेद कागज की भांती होता है। उस पर व्यक्ति जैसे चाहे, वैसे चित्र उकेर सकता है,या फिर जैसा भी चाहें,लिख सकते हैं। उसकी सोच को जिस दिशा में मोड़ना हो, सरलता से मोड़ा जा सकता है। एक दृष्टि से यह मंतव्य सही हो सकता है पर यह सर्वांगीण दृष्टिकोण नहीं है। क्योंकि हर बच्चा अपने साथ अनुवांशिकता लेकर आता है, जो कि गुणसूत्र (क्रोमोसोम) और संस्कार सूत्र (जीन्स) के रूप में विधमान रहते हैं।
सामाजिक वातावरण भी उसके व्यक्तित्व का एक घटक है। इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कार-निर्माण के बीज हर बच्चा अपने साथ लाता है। सामाजिक या पारिवारिक वातावरण में उसे ऐसे निमित्त मिलते हैं, जिनके आधार पर उसके संस्कार विकसित होते हैं। प्राय: देखा जाता है कि माता-पिता अपनी संतान के लिए भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन जुटा देते हैं, शिक्षा एवं चिकित्सा की व्यवस्था कर देते हैं,किन्तु उनके लिए सर्वांगीण विकास के अवसर नहीं खोज पाते। कुछ अभिभावक तो ऐसे होते हैं, जो उनकी शिक्षा और आत्मनिर्भरता के बारें में भी उदासीन रहते हैं।
उचित मार्गदर्शन के अभाव में अथवा अधिक लाड़-प्यार में या तो बच्चे कुछ करते नहीं या इस प्रकार के काम करते हैं, जो उन्हें भटकाने में निमित्त बनते हैं। ऐसी परिस्थिति में हर समझदार माता पिता का यह दायित्व है कि वे अपने बच्चों की परवरिश में संस्कार-निर्माण की बात को न भूलें।
आधुनिक युग में मां-बाप भी बच्चों को स्कूलों के भरोसे छोडकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अगर देखा जाए तो इस तरह से हम लोग कहीं न कहीं उनके साथ अन्याय ही कर रहे हैं। क्यों कि वर्तमान शिक्षा पद्धति का ये सबसे बडा दोष है कि इसमें सिर्फ बौद्धिक विकास को ही महत्व दिया गया है,संस्कृ्ति एवं संस्कारपक्ष को तो पूरी तरह से ही त्याग दिया गया है। ऎसे में हम लोग किस प्रकार ये अपेक्षा कर सकते हैं कि बच्चों का समग्र विकास हो पाएगा। कान्वेंट्स और पब्लिक स्कूल आधुनिक कहलाने वाले अभिभावकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन चुके है। वे मानते हैं कि इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे आधुनिक रूप से विकसित होते हैं, समाज में जीने के तौर-तरीके बहुत अच्छे ढंग से सीखते हैं। कुछ अंशों में यह बात सही हो सकती है। परन्तु सिर्फ सामाजिक तौर तरीके ही जीवन नहीं है।
जीवन की समग्रता के लिए संस्कृति, परम्परा,राष्ट्रप्रेम, अनुशासन, विनय, सच्चाई, सेवाभावना आदि अनेक मूल्यों को जीना सिखाने की जरूरत है।आप अगर कान्वैंट या पब्लिक स्कूल के विधार्थी से मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद इत्यादि के बारे में पूछ के देखें तो बगलें झांकने लगेगा,लेकिन माईकल जैक्सन के बारे में वो शर्तिया जानता होगा। वन्देमातरम की उसे भले एक लाईन न आती हो,लेकिन ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार पूरा सुना देगा। जिस शिक्षाक्रम में संस्कृति के मूल पर ही कुठाराघात हो, उससे संस्कार-निर्माण की अपेक्षा करना तो एक प्रकार से मूर्खता ही कही जा सकती है।आज आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को निरंतर ऐसा वातावरण मिले और उनके शिक्षाक्रम में कुछ ऐसी चीजें जुडें, ज़ो उन्हे बौध्दिक विकास के साथ-साथ भावनात्मक विकास के शिखर तक पहुंचा सके।
3 comments:
शिक्षा का स्तर भी गिरा है और संस्कार का तो पता ही नहीं । यह सामाजिक परिवर्तन की हवा पतन की तरफ अग्रसर है । नैतिक मूल्यों में गिरावट देखी जा सकती है । इसके लिए सभी प्रकार के कारक जिम्मेदार है साथ शिक्षा का अहम योगदान है ।
वर्तमान परिदृश्य में इस गिरावट के पीछे परिवार और शिक्षा प्रणाली जिम्मेदार है । घर से जिस तरह का महौल हमें मिला शायद वो हम अपनी आगे की पीढियों को दे पायें । आज की दुनिया के साथ ये बदलाव नकारात्मक है ।
jis din hum apne ghar main sahide azam bhagat singh ,tipu sultaan raani jhansi ke janam ki kaamnaa karne lagenge aur samaazik visangatiyon ke virudh awaaz buland karne lagenge usi din se sabhi prakaar ki giravat apneaap hi smaapt ho jaayegi.
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