अब हवाओं में फैला गरल ही गरल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।। गन्ध से अब, सुमन की-सुमन है डरा, भाई-चारे में, कितना जहर है भरा, वैद्य ऐसे कहाँ, जो पिलायें सुधा- अब तो हर मर्ज की है, दवा ही अजल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।। धर्म की कैद में, कर्म है अध-मरा, हो गयी है प्रदूषित, हमारी धरा, पंक में गन्दगी तो हमेशा रही- अब तो दूषित हुआ जा रहा, गंग-जल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।। आम, जामुन जले जा रहे, आग में, विष के पादप पनपने, लगे बाग मे, आज बारूद के, ढेर पर बैठ कर- ढूँढते हैं सभी, प्यार के चार पल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।। शिव अभयदान दो, आज इन्सान को, जग की यह दुर्गति देखकर, हे प्रभो! नेत्र मेरे हुए जार हे हैं, सजल । क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।
आओ! शंकर, दयानन्द विष-पान को,
5 comments:
वास्तविक स्वरूप पर खूबसूरत गजल आपने प्रस्तुत की । न प्रेम , न भाईचारा सिर्फ भेदभाव और द्वेष है । धन्यवाद सर जी
खूबसूरत गजल..
बेहतरीन......पूर्णत: यथार्थ को दर्शाती रचना.
आभार
dharam ki kaid me haikaram adhmara
ho gayee pardooshit hamaree dhara bahut sunder aur steek abhivyakti hai bdhai
Sundar gazal........
bhaav poorn, har sher lajawaab
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