ज़िन्दगी जीते-जीते आया एक अजनबी खयाल
क्या कभी ज़िन्दगी जी मैंने? कौंधा ये सवाल
हरपल रहा बस सुनहले ख्वाबों में खोया
रचा निज विचारो का संसार, कभी हंसा तो कभी रोया
निष्फिक्र होकर, बन विक्रम, बचपन बिताया
न जाने कब फिर मैं "किशोर कुल" में आया
अभी भी ज़िन्दगी से दूर खोया रहा किताबों में
कभी अन्वेषक तो कभी जनसेवक, रोज बनता मैं ख्वाबों में
यूँ ही फिर एक दिन, दिल के किसी कोने में कोई फूल खिला
कोई अजनबी लगा आने ख्वाबों में, हुआ शुरू ये सिलसिला
फिर क्या आरज़ू जगी दिल में , तड़प ने उससे मिलवाया
फिर उदित हुआ नव भ्रम रवि, लगा जैसे मैं सब कुछ पाया
मित्र-मस्ती, चहल-पहल-, प्रेमिका-और-प्यार
इन्ही में कुछ पल टिका रहा मेरा जीवन संसार
अभी भी दूर था , मुझसे-मुझतक का फासला
अभी भी न मिटा ज़िन्दगी और मेरे बीच का फासला
फिर ज़िन्दगी कुछ आगे चली, फिर आया एक मोड़
फिक्र-ऐ-रोजगार में आया सबकुछ पीछे छोड़
जब खाईं ठोकरें तो हुआ वास्तविकता का कुछ बोध
कुछ-हद तक पहचाना ज़िन्दगी को, चाहा करना इसपर शोध
पर समय कहाँ ठहरा ? जीवन चक्र चलता रहा निरंतर
बस यूँही घटता-बड़ता रहा ज़िन्दगी और मेरे बीच का अंतर....("प्यासा")
10 comments:
sundar kavita ..........
बहुत ही सुन्दर कविता।
Bht bdhi likhe hai
achha likhe hai oer koi nahi likhn wala hai es manch ?
achha likhe hai oer koi nahi likhn wala hai es manch ?
or hai likhne wale to wh hai khan aksr ap he q ?
nice poem.
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