सब जानते हैं-
सांप्रदायिकता!
धर्म,भाषा,रंग,देश...
न जाने कितनी ही बिंदुओं पर
तुम कटार उठाओगे
और दौड़ने लगोगे एकाएक
हांफते हुए-
कस्बा-कस्बा
शहर-शहर
गांव-गांव।
और यह भी
सब जानते हैं-
कि अपने चरित्रानुसार
रोती-बिलखती बुत बनी आत्माओं
खंडहरों के बीच छुप जाओगे
शायद तुम्हारे भीतर का आदमी
डरा होगा थोड़ी देर के लिए।
तब-
उन्हीं खंडहरों
काठ बनी आत्माओं के बीच से
निकल आएगा धीरे-धीरे
एक कस्बा
एक शहर
एक गांव....एक गांव...।
शनिवार, 23 जुलाई 2011
सांप्रदायिकता (कविता)----जयप्रकाश सिंह बंधु
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3 comments:
bahut gahanabhibyakti liye hue saarthak rachanaa.badhaai aapko.
bahut hee sundar kavita
UMDA PRASTUTI...
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