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मंगलवार, 17 मई 2011

कशिश {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

उसके पंजों में महज
 एक तिनका नहीं है,
और न ही उसकी चोंच में
एक चावल का दाना
वो तो पंजो में साधे
हुए है एक
सम्पूर्ण संसार,
उसकी चोंच में है
 एक कर्तब्य
एक स्नेहिल दुलार...
ये पर्वत शिखा से
निर्झरिणी का प्रवाह
महज एक
वैज्ञानिक कारण नहीं है,
और न ही
कोई संयोग,
ये तो धरा की तड़प,
और जीवन की प्यास
करती है इसे
पर्वताम्बर, से
उतरने को बेकल...
ये खिलती कलियाँ,
निखरती सुरप्रभा
सरकती,महकती
यूँ ही नहीं
मन को हर्षाते
संध्या की मौन वीणा
मचलती चांदनी
यूँ ही नहीं
प्रेमीयुगल की
उत्कंठा बढ़ाते...
ये बदलो के उस छोर
नित्य सूर्य का उगना, ढलना
महज एक प्राकृतिक नियम नहीं है,
ये सब तो
उर की उत्कंठा,
अनुरक्ति की देन है...
ये अलौकिक शक्ति है
प्रीत की,
एक मनोरम अभिव्यक्ति है
मिलन के रीत की....
  

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति मिलन के रीत की।

prerna argal ने कहा…

ये सब तो
उर की उत्कंठा,
अनुरक्ति की देन है...
ये अलौकिक शक्ति है
प्रीत की,
एक मनोरम अभिव्यक्ति है
मिलन के रीत की....
bahut hi sunder rachanaa.bahut bahut badhaai aapko.

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत अच्छी लगी आपकी रचना...

बेनामी ने कहा…

are bhaaai, pyasa
aj kal mst mst............