देखता लोगों को
करते हुए अर्पित
फूल और माला
दूध और मेवा
और न जाने क्या-क्या
और न जाने क्या-क्या
हाँ तब जगती है एक उम्मीद
कि
शायद तुम हो
पर जैसे ही लांघता हूँ चौखट तुम्हारा
तार-तार हो जाता है विश्वास मेरा
टूट जाता है समर्पण तुम्हारे प्रति
जब देखता हूँ कंकाल सी काया वाली
उस औरत को
जिसके स्तनों को मुँह लगाये
उसका बच्चा कर रहा था नाकाम कोशिश
अपनी क्षुधा मिटाने को
हाँ उसी चौखट के बाहर
लंबी कतारे भूखे और नंगो की
अंधे और लगड़ों की.....
वह जो अजन्मी
खोलती आंखे कि इससे पहले
दूर कहीं सूनसान में
दफना दिया जाता है उसे
फिर भी खामोश हो तुम.....
एक अबोध जो थी अंजान
खोलती आंखे कि इससे पहले
दूर कहीं सूनसान में
दफना दिया जाता है उसे
फिर भी खामोश हो तुम.....
एक अबोध जो थी अंजान
इस दुनिया दारी से
उसे कुछ वहशी दरिंदे
रौंद देते है
कर देते हैं टुकड़े- टुकड़े
कर देते हैं टुकड़े- टुकड़े
अपने वासना के तले
करते हैं हनन मानवता
और तुम्हारे विश्वास का........
तब अनवरत उठती वह चीत्कारखून क़ी वे निर्दोष छींटे
करुणा से भरी वह ममता
जानना चाहती है
क्या सच में तुम हो ??????
10 comments:
बहुत खूबसूरत कविता ... सच मे, एक सवाल छोड जाती है कि क्या सच मे तुम हो ?????
BEHTAREEN KAVIT...
SUNDAR BHAVABHYAKTI...
बहुत ही भावपूर्ण और आज के सामाजिक परिवेश में भगवान के अस्तित्व का संबोधन...बहुत सुंदर..।
बड़ी गहरी कविता, गहरे प्रश्न?
क्या सच में तुम हो ??????
बहुत मार्मिक रचना...बहुत सार्थक प्रश्न उठाती है भगवान के अस्तित्व पर...सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति..
गहन सोच में डूब गया मन -
अनुत्तरित रह गए प्रश्न -
खून क़ी वे निर्दोष छींटे
करुणा से भरी वह ममता
जानना चाहती है
क्या सच में तुम हो ??????
bahut marmik abhivyakti.
मानवीय संवेदनाओं को झकझोरती है
यह दिल को छू लेने वाली कविता. आभार .
marmik rachna ....
bahut hi marmik rachana .
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