हिन्दी
हिन्दी है राजनीति की शिकार हो गयी।
धारा संविधान की बेकार हो गयी ।
सोते रहे रहनुमा कुर्सी के मोह में--
है राष्ट्रभाषा संसद में लाचार हो गयी ।
हिन्दी का पोर-पोर बिंधा घावों से ।
हो गया आहत ह्रदय बिडम्बनाओं से ।
कलम के सिपाहियों खामोश मत रहो --
है राष्ट्र भाषा सिसक रही वेदनाओं से ।
अखबार
डर जाये जो आतंक से कलमकार नहीं है ।
मोड़े जो मुख सत्य से पत्रकार नहीं है ।
जनता के दुखदर्द को जो लिख नहीं पाया--
हो कुछ भी वो मगर वो अखबार नहीं है ।
सोमवार, 20 सितंबर 2010
कुछ मुक्तक----पद्मकान्त शर्मा ' प्रभात'
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3 comments:
तीनों ही मुक्तक सोया हुआ ज़मीर जगाने के लिये काफ़ी हैं………………बेहतरीन्।
बहुत खूब..........
सटीक एवं प्रभावकारी अभिव्यक्ति !
-सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
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