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शनिवार, 28 अगस्त 2010

एक कविता "भारतेंदु की" सन्तोष कुमार "प्यासा"

वैसे तो भारतेंदु जी की सभी रचनाएँ मुझे प्रिय है, लेकिन उनकी एक कविता जो मेरे ह्रदय को छूती है उसे मै आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ !


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
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निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्लै है सोय।

लाख उपाय अनेक यों, भले करे किन कोय।।

इक भाषा इक जीव इक, मति सब घर के लोग।

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
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और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।

यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय
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भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।

सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

3 comments:

Urmi ने कहा…

भारतेंदु जी की कविता बहुत अच्छी लगी! सुन्दर प्रस्तुती! धन्यवाद!

Gurramkonda Neeraja ने कहा…

भारतेंदु जी की यह कविता हर भारतीय को अपने जीवन में उतारनी चाहिए.
प्रस्तुतीकरण पर बधाई.

shyam gupta ने कहा…

युगजयी कविता.