नज़र बे-जुबाँ और जुबाँ बे-नज़र है
इशारे समझने का अपना हुनर है
सितारों के आगे अलग भी है दुनिया
नज़र तो उठाओ उसी की कसर है
मुहब्बत की राहों में गिरते, सम्भलते
ये जाना कि प्रेमी पे कैसा कहर है
जो मंज़िल पे पहुँचे दिखी और मंज़िल।
ये जीवन तो लगता सिफर का सफ़र है।।
रहम की वो बातें सुनाते हमेशा
दिखे आचरण में ज़हर ही ज़हर है
कई रंग फूलों के संग थे चमन में
ये कैसे बना हादसों का शहर है
है शब्दों की माला पिरोने की कोशिश
सुमन ये क्या जाने कि कैसा असर है
शनिवार, 24 जुलाई 2010
सिफर का सफ़र.................श्यामल सुमन
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4 comments:
वाह! वाह! वाह!बहुत ही खूब!
जो मंज़िल पे पहुँचे दिखी और मंज़िल।
ये जीवन तो लगता सिफर का सफ़र है।।.....वाह!बहुत खूब
बड़ी संजीदा गज़ल।
प्रस्तुत की गई इस ग़ज़ल को पढ़ कर मैं वाह-वाह कर उठा।
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