मैं भी चाहता हूँ की हुस्न पे ग़ज़लें लिखूँ
मैं भी चाहता हूँ की इश्क के नगमें गाऊं
अपने ख्वाबों में में उतारूँ एक हसीं पैकर
लेकिन भूख के मारे, ज़र्द बेबस चेहरों पे
हर तरफ हकीकत में क्या तसव्वुर में
ख़्याल आता है जेहन में उन दरवाजों का
जिनके तन को ढके हैं हाथ भर की कतरन
जिनकी डोली नहीं उठी इस खातिर क्योंकि
चूल्हा एक बार ही जला हो घर में लेकिन
नज़र में घुमती है शक्ल उन मासूमों की
वीरान साँसे , पीप से भरी -धंसी आँखे
माँ की छाती से चिपकने की उम्र है जिनकी
शोभित जिन हाथों में होनी थी कलमें
राह में घूमते बेरोजगार नोजवानों को
जिन्द्के दम से कल रोशन जहाँ होना था
फ़िर कहो किस तरह हुस्न के नगमें गाऊं
फ़िर कहो किस तरह अपने सुखन में
आज संसार में गम एक नहीं हजारों हैं
लेकिन सच है की भूखे होंठ हँसेंगे सिर्फ़ रोटी से
3 comments:
लेकिन सच है की भूखे होंठ हँसेंगे सिर्फ़ रोटी से
मीठे अल्फाजों से कोई मन बहला नही सकता ।
bahut achche sir
बेहद भावपूर्ण रचना ।
सच की नंगी तस्वीर प्रस्तुत की है आपने
लेकिन सच है की भूखे होंठ हँसेंगे सिर्फ़ रोटी से
मीठे अल्फाजों से कोई मन बहला नही सकता ।
बहुत सुंदर
bahut khub
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
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