नदी के पास नहीं हैं जल
वृक्षों की टहनियों पर नहीं हैं पर्ण
पगडण्डीयो पर धूल में हैं कण
तालाब में नहीं खिले हैं कमल
कुओं के स्रोत के प्यासे हैं अधर
मेरे साथ हैं
बबूल की परछाईयों के घायल तन
हवा भी बहुत हैं गरम
अमराई में भी झर गए हैं आम के फल
आग लगी हैं
और
जल रहा हैं समूचा वन
उठा हैं धुंवा आकाश तक
इसलिए
दूर खड़े ..पर्वतो के सीने में भी
हैं कम्पन
सूनसान इस दृश्य में
अदृश्य हैं जन
सड़को के पास भी -
मृगतृष्णा का .. आकर्षक हैं भरम
रेत पर -बने पद चिन्हों के
पैरो में हैं जलन
पर कब थका हैं खेतो का उर्वर मन
जमी नमी की बूंदों को निचोड़ कर
एक महानदी के इंतज़ार में
जी लेता हैं तट
नन्ही चिडियों की चोंच में
जब तक तिनका हैं
और उड़ रहें उनके पंख
तब तक मनुष्य करो ...
सुनहरे भविष्य के लिए संघर्ष
रहो निश्चिन्त
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
नदी के पास नहीं हैं जल ......(कविता) .......किशोर जी
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