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बुधवार, 3 मार्च 2010

नारी मन की राह---------[कविता]-------नीलिमा गर्ग

राह
उत्ताल तरंगों को देखकर
नही मिलती
सागर की गहराई की थाह
शांत नजरों को देखकर
नही मिलती
नारी मन की राह

टुकडों में जीती जिन्दगी
पत्नी ,प्रेमिका ,मां ,
अपना अक्स निहारती
कितनी है तनहा

सूरज से धुप चुराकर
सबकी राहें रोशन करती
अपने उदास अंधेरों को
मन की तहों में रखती

सरल सहज रूप को देखकर
नही मिलती
नारी मन की राह

10 comments:

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

नारी भाव को बखूबी पिरोया है आपने शब्दो में , आभार ।

Sadhana Vaid ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव और बड़ी गहरी भावाभिव्यक्ति ! बधाई !

जय हिन्दू जय भारत ने कहा…

सूरज से धुप चुराकर
सबकी राहें रोशन करती
अपने उदास अंधेरों को
मन की तहों में रखती

सच कहाँ आपने नारी स्वभाव होता ही ऐसा है , बढ़िया रचना लगी

निर्मला कपिला ने कहा…

सूरज से धुप चुराकर
सबकी राहें रोशन करती
अपने उदास अंधेरों को
मन की तहों में रखत
नारी मन का दर्पण है ये रचना। धन्यवाद

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

नारी मन को खूबसूरती से बयां किया है....

vandana gupta ने कहा…

nari man ka aaina hai ye kavita.........gazab ki prastuti.

vandana gupta ने कहा…

nari man ka aaina hai ye kavita.........gazab ki prastuti.

vandana gupta ने कहा…

nari man ka aaina hai ye kavita.........gazab ki prastuti.

डा श्याम गुप्त ने कहा…

---नारी मन की थाह--ब्रह्मा भी नहीं जान पाये, सच है। परन्तु--
टुकडों में जीती जिन्दगी
पत्नी ,प्रेमिका ,मां ,
अपना अक्स निहारती
कितनी है तनहा

----पत्नी, प्रेमिका, मां की भूमिका को हम निराशावादी द्रष्टि से क्यों लें ? आशाबादी द्रष्टि विकसित करें--- विविध भूमिकाओं को नारी कितनी सहज़ता से निभा ले जाती है,यह महत्ता है नारी की - यह ज़िन्दगी की संपूर्णता है ।

neelima garg ने कहा…

Thanks for all the encouragement...