दर्द आज बयां करना चाहता था अपनी पीड़ा को जो उसे असहाय कर चली थी जब से वह उसके भीतर पली थी चिंता के साथ घुल रही थी उसकी हड्डियां भीं उसके रोम छिद्र सिहर उठते उसकी चुभन से आंसुओ के वेग में निशब्द मौन खड़ा वह होठों को भींचकर देखता उसकी जड़ता को हठीली मुस्कान पपड़ाये हुये होठों पर सफेद धारियों में रक्त की लालिमा लाकर उसे मन ही मन कुंठित करती आज पूरे वेग से वह झटकना चाहता था गुजरना चाहता था हद के परे हताशा और निराशा के पकड़ना चाहता था आस की एक नन्हीं किरण जो इस दर्द का अंत कर सकती थी
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
एक नन्हीं किरण------[कविता]----------सीमा सिंघल 'सदा'
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8 comments:
आस की एक नन्हीं किरण
जो इस दर्द का अंत कर सकती थी
बहुत गहरे भाव लिये इस कविता के लिये धन्यवाद
आशा की किरण ही हताशा को दूर कर सकती है....सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति लगी ।
बहुत ही बेहतरीन कविता लगी , बधाई ।
bahut gahre bhav.
शब्दों का धमाल!
आपकी लेखनी का कमाल!
बधाई!
bahut khub
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