बिछड़ कर ही समझ आता, क्या है मोल साथी का ।
जब तक साथ रहे उसका, क्यों अनमोल न उसे समझें ।
अच्छाइयाँ अगर धर्म है, क्यों गल्तियों पर उठे उँगली ।
सराहने मे अहँ आड़े, अनिच्छा क्यों सुझाएँ हम ।
ज्यों अहँ को गहन न होने दें, तो परिलक्षित होवे क्यों ।
क्यों साथी के हर एक इच्छा, को मृदुल-इच्छा न समझे हम ।
सामंजस्य की कमी जो नहीं, कटुता का स्थान भी न हो ।
कहने को नेह बहुत, तो फ़िर क्यों न वारे हम ।
खुशियों को सहेजें तो, आपस का नेह अक्षुण क्यों न हो ।
दुःख भी तो रहे न सदा, आपस मे न बाटें क्यों ।
समर्पण को लगा लें गले, क्यों अधिकार न त्याजे हम ।
यह जीवन तो क्षण भंगुर, विषादों तले गँवाएँ क्यों ।।
11 comments:
कुसुम जी इस सुन्दर कविता के लिए आभार ।
कुसुम ही सच ही कहा आपने , दर्द का पता तो तब ही चल पाता जब कोई अपना हमसे जुदा होता है । रचना बहुत अच्छी लगी , बधाई
"बिछड़ कर ही समझ आता,क्या है मोल साथी का।
जब तक साथ रहे उसका,क्यों अनमोल न उसे समझें।
सुंदर रचना के माध्यम से सच्चा सन्देश
सुन्दर रचना..आभार!
"क्यों साथी के हर एक इच्छा, को मृदुल-इच्छा न समझे हम।"
बहुत सुन्दर! यही होना चाहिये!!
ek khoobsoorat prem sandesh deti kavita.......badhayi.
आपकी रचना के भाव एक गजल के इस शेर से बहुत मिलते हैं
"दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाये तो माटी है...खो जाये तो सोना है"
विछोह की पिड़ा क्या होती है ये उसके बाद ही पता चलता है । सुन्दर कविता
ज्यों अहँ को गहन न होने दें, तो परिलक्षित होवे क्यों ।
क्यों साथी के हर एक इच्छा, को मृदुल-इच्छा न समझे हम ।
कुसुम जी आपकी ये लाईंन बहुत कुछ बयाँ कर रही है ,सुन्दर शब्दो के साथ बढियां कविता लगी , बधाई स्वींकार करें ।
nice
kusum ji sach kaha aapna...atyant sunder abhivyakti...jo sach se ru-b-ru karati hai.
Anamika7577.blogspot.com
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