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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

संतुलन ---- अगीत ------- [डा श्याम गुप्त ]

विकास हेतु,
संसाधन दोहन की ना समझ होड़ ,
अति शोषण की अंधी दौड़;
प्रकृति का संतुलन देती है बिगाड़,
विकल हो जाते हैं नदी सागर पहाड़,
नियामक व्यवस्था तभी तो करती है यह जुगाड़;
चेतावनी देती है,
सुनामी बनाकर सब कुछ देती है उजाड़ ,
करने को अपना संतुलन ,सुधार

5 comments:

Unknown ने कहा…

सर जी , अगीत विधा तो कम ही पढ़ने को मिलती है । आप ने प्रकृति की सच्चाई को बयां किया है । हमें इस तरह की विपदाएं संभलने का मौका देती है ।

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत सच्ची बात बयान करती हुई रचना. बधाई.

shyam gupta ने कहा…

निशू जी, रुचि प्रदर्शन के लिये धन्यवाद, और अगीत एवम अगीत विधा के बारे में मेरे ब्लोग ’http://shyamthot.blogspot.com ( The world of my thoughts…shyamsmriti..) पर पढें । हिन्दी साहित्य मन्च पर भी मैं और अगीत भेजूंगा, अगीत विधा के विभिन्न छंद भी।

Mithilesh dubey ने कहा…

एक बार फिर आपको पढकर बहुत बढिया लगा ।

जय हिन्दू जय भारत ने कहा…

उम्दा रचा है गुप्ता जी आपने ।