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गुरुवार, 28 जनवरी 2010

“कुहरा” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)


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आस-पास है बहुत अंधेरा,
देखो हुआ सवेरा!
सूरज छुट्टी मना रहा है,
कुहरा कुल्फी जमा रहा है,
गरमी ने मुँह फेरा!
देखो हुआ सवेरा!
भूरा-भूरा नील गगन है,
गीला धरती का आँगन है,
कम्बल बना बसेरा!
देखो हुआ सवेरा!
मूँगफली के भाव बढ़े हैं,
आलू के भी दाम चढ़े हैं,
सर्दी का है घेरा!
देखो हुआ सवेरा!

8 comments:

vandana gupta ने कहा…

sundar prastuti.

शबनम खान ने कहा…

आजकल तो सर्दी के घेरे से बाहर निकले हुए है....
पर कोहरा....अभी भी तंग कर रहा है...
अच्छी प्रस्तुति...

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

नवगीत अच्छा बना है.................सर्दी में एक समस्या बना हुआ है ये कुहरा ।

जय हिन्दू जय भारत ने कहा…

वाकई बहुत ही अच्छा गीत लिखा है आपने मौसम के मिजाज को देखते हुए ।

Unknown ने कहा…

आस-पास है बहुत अंधेरा,
देखो हुआ सवेरा!
सूरज छुट्टी मना रहा है,
कुहरा कुल्फी जमा रहा है,
गरमी ने मुँह फेरा!
देखो हुआ सवेरा!

सुन्दर गीत .......................धन्यवाद।

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत उन्दा गीत बन पड़ा है सर्दी में ।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

बहुत ही सुंदर बन पड़ी है।

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

सही बात है कविता को भी मँगाई मार गई :)