जब वतन छोड़ा, सभी अपने पराए हो गए खो गई वो सौंधी सौंधी देश की मिट्टी कहां ? बचपना भी याद है जब माँ सुलाती प्यार से दोस्त लड़ते जब कभी तो फिर मनाते प्यार से किस क़दर तारीक है अपना जहाँ उन के बिना था मेरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम नहीं हर तरफ़ ही शोर है, ये महफ़िले-शेरो-सुख़न
आंधी कुछ ऐसी चली नक़्शे क़दम भी खो गए
वो शबे-महताब दरिया के किनारे खो गए
आज सपनों में उसी की गोद में हम सो गए
आज क्यूं उन के बिना ये चश्म पुरनम हो गए!
दर्द फ़ुरक़त का लिए हम दिल ही दिल में रो गए
गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए
अजनबी इस भीड़ में फिर भी अकेले हो गए
शनिवार, 14 नवंबर 2009
जब वतन छोड़ा……[गजल]- मोहम्मद ताहिर काज़मी
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6 comments:
मोहम्मद ताहिर काज़मी जी आपकी यह गजल पढ़कर कर रोम रोम पुलकित हो गया । आपने जिस तरह से एक दृश्य प्रस्तुत किया सब कुछ सजीव हो गया । बधाई
था मेरा प्यारा घरौंदा, ताज से कुछ कम नहीं
गिरती दीवारों में यादों के ख़ज़ाने खो गए
हर तरफ़ ही शोर है, ये महफ़िले-शेरो-सुख़न
अजनबी इस भीड़ में फिर भी अकेले हो गए
यूँ तो मैं गज़लकार नहीं हूँ । अभी सीख रही हूँ और्काज़मी जी जैसे गज़लगो के लिये कुछ कहना सूरज को दीप दिखाने जैसा है । बार बार पढूँगी उनकी ये गज़ल उनको बहुत बहुत बधाई इस लाजवाब गज़ल के लिये
बस एक ही शब्द है, लाजवाब।
achchhi ghazal,khoobsurat aur baamaani alfaaz ke saath.mubarak ho.
जब वतन छोड़ा, सभी अपने पराए हो गए
आंधी कुछ ऐसी चली नक़्शे क़दम भी खो गए
खो गई वो सौंधी सौंधी देश की मिट्टी कहां ?
वो शबे-महताब दरिया के किनारे खो गए..
bahut hi sundr gazal......
हर तरफ़ ही शोर है, ये महफ़िले-शेरो-सुख़न
अजनबी इस भीड़ में फिर भी अकेले हो गएnice
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