मेरे जीवन की चेतना का
तुम अमृत हो
डूबा रहता है कलम सा मन मेरा
तुम्हारे
ख्यालो की स्याही मेसुबह शामबाह्य आवरण है दिनचर्या के काम
जैसे अपने बाहुपाश मे भर
सुरक्षित रखता है
मुझे
मेरी देह का यह मकानमेरी इस
कल्पना के वीरान संसार
मे
तुम
फूलो की पंखुरियों सी कोमल
शीतल जल के बहाव सी रेत
पर हो अंकित
एक गीत चल चल कल कलकिरणों और बादलो के पल पल
बदलते रंगों के धागों से
बनी पोशाक की हो तुम धारणपहाड़ से उतरती हुवी
विचार मगना
तुम उदगम से चली
अकेली
चिंतन-धारा हो तनहा
या
खुबसूरत ,मनमोहक ,प्रकृति हो
सोचती रहना....पर मुझ कवि की भावुकता का
हे शाश्वत यौवना
मत करना उपहाससमझो हम दोनों है
एक दूजे के लिए
जीवित उपहारमै सौन्दर्य का पुजारी
और तुम
प्रकृति .....
करती हो
नित नव श्रृंगार
रविवार, 8 नवंबर 2009
तुम अमृत हो -------------(किशोर कुमार खोरेन्द्र)
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6 comments:
बेहद खूबसूरत रचना लगी, आपने शब्दो का संयोजन लाजवाब तरिके से किया है। हिन्दी साहित्य मंच पर सहयोग देने के लिए आभार।
बेहद लाजवाब रचना।
हिन्दी साहित्य मंच
aadarniy sampadak mahoday
mae aapka aabhaarii hu kii aapne meri rachnaao ko apane manch par isthan diya
savinmr prathana hae kii
aur aashaa bhi .....
ki aap merii kavitaao ko
uchit avm yogy lagane par
apne manch par isi tarah isthaan dete rahenge dhnyvaad
08-11-09
kishor
raipur c.g.
Mithilesh dubey
jii
bahut bahut dhnyvaad
बेहद खूबसूरत रचना ...
महेन्द्र मिश्र
ji dhnyvaad
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