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बुधवार, 4 नवंबर 2009

यूं मेरे नव-गीत बन गए ---------(डा0 श्याम गुप्त)

गीत कविता वस्तुतः मन की गहराई से निस्रत होते हैं , जीवन एक गीत ही है , जीवन आयु के विभिन्न सोपानों परउठतेहुए विभिन्न भावों को सहेज़ते हुएमन के भाव- गीतों के विभिन्न रूप भाव निसृत होते हैं उसी के भावानुसार ही गीतनिसृतहोते हैं, इन गीत भावों को प्रत्येक मन , मानव ,व्यक्तित्व अपने जीवन में अनुभव करता है, जीता है , बस कवि उन्हेंमानसकी मसि में डुबो कर कागज़ पर उतार देता है ; देखिये कैसे --)


दर्द बहुत थे ,भुला दिए सब ,
भूल पाये ,वे बह निकले -
कविता बनकर ,प्रीति बन गए |
दर्द जो गहरे ,नहीं बह सके ;
उठे भाव बन ,गहराई से,
वे दिल की अनुभूति बन गए |


दर्द मेरे मन मीत बन गए ,
यूँ मेरे नव-गीत बन गए ||


भावुक मन की विविधाओं से,
बन सुगंध वे छंद बने फ़िर-
सुर लय बन कर गीत बन गए |
भूली-बिसरी यादों के उन,
मंद समीरण की थपकी से
ताल बने संगीत बन गए |---दर्द मेरे....||


सुख के पल छिन जो भी आए,
स्वप्न सुहाने से मन भाये;
प्रणय मिलन के मधुरिम पल में,
तन-मन के मधु-सुख कम्पन बन ;
तनकी भव-सुख प्रीति बन गए,
गति यति बन रस रीति बन गए |---दर्द मेरे ....||


ज्ञान-कर्म के ,नीति-धर्म के,
विविध रूप जब मन में उभरे |
सत् के पथ की राह चले तो ,
जग-जीवन की नीति बन गए |
तन के मन के अलंकार बन,
जीवन की भव -भूति बन गए|-----यूँ मेरे नव .....||


दर्शन भक्ति विराग-त्याग के,
सुख संतोष भाव मन छाये ;
प्रभु की प्रीति के भाव बने तो ,
आनंद सुख अनुभूति बन गए |
आत्मलीन जब मुग्ध मन हुए;
परमानंद विभूति बन गए |-----दर्द मेरे........||


अप्रमेय अनुपम अविनाशी ,
अगुन अभाव नित विश्व प्रकाशी ;
सत् चित आनंद घट घट बासी ,
अंतस के जब मीत बन गए ;
अमृत घट के दीप जल गए ,
आदि अनाहत गीत बन गए |


दर्द मेरे मन मीत बन गए,
यूँ मेरे नव-गीत बन गए ||

3 comments:

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

बेहद ही खूबसूरत रचना। बहुत-बहुत बधाई

Mithilesh dubey ने कहा…

दर्द मेरे मन मीत बन गए,
यूँ मेरे नव-गीत बन गए ||

वाह क्या बात है बहुत खुब। ये लाईनें सच्चाई बयां कर रही हैं।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

इस रचना की जितनी प्रसन्‍नता की जाए, उतनी ही कम है। बेहद सशक्‍त नवगीत, शुभकामनाएं।