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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

लोग--------- (संतोष कुमार "प्यासा")

आखिर किस सभ्यता का बीज बो रहे हैं

लोग अपनी ही गलतियों पर आज रो रहे हैं

लोग हर तरफ फैली है झूठ और फरेब की

आग फिर भी अंजान बने सो रहे है

लोग दौलत की आरजू में यूं मशगूल हैं

सब झूठी शान के लिए खुद को खो रहे हैं लोग

जाति, धर्म और मजहब के नाम पर

लहू का दाग लहू से धो रहे हैं

लोग ऋषि मुनियों के इस पाक जमीं

पर क्या थे और क्या हो रहे है लोग

7 comments:

कविता रावत ने कहा…

लोग दौलत की आरजू में यूं मशगूल हैं

सब झूठी शान के लिए खुद को खो रहे हैं लोग

जाति, धर्म और मजहब के नाम पर

लहू का दाग लहू से धो रहे हैं

Bahut khub, achha laga.
Badhai.

अजय कुमार ने कहा…

संतोष जी अच्छी ग़ज़ल है
एक विनम्र निवेदन है -शायद 'लोग ' शब्द जो लाइन के आखिर में होना चाहिए ,वो अगले लाइन के शुरू में लग गया है | ऐसा मुझे लग रहा है ,गुस्ताखी माफ़

मनोज कुमार ने कहा…

बेहद रोचक और मार्मिक

संतोष कुमार "प्यासा" ने कहा…

ajy kumar ji vo likhne me kuchh samsya ho gai hai

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर सामयिक रचना है।बधाई।

Gurramkonda Neeraja ने कहा…

अच्छा लगा
सभ्यता और आधुनिकता के नाम पर पता नहीं हम कहाँ खो रहे हैं

Mustkeem khan ने कहा…

वहुत अच्छा लिखा है सर आपने