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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

सफ़र में हूँ अब तो सफर काटता है (जतिन्दर परवाज़)

वो नज़रों से मेरी नज़र काटता है

मुहब्बत का पहला असर काटता है

मुझे घर में भी चैन पड़ता नही था

सफ़र में हूँ अब तो सफर काटता है

ये माँ की दुआएं हिफाज़त करेंगी

ये ताबीज़ सब की नज़र काटता है

तुम्हारी जफ़ा पर मैं ग़ज़लें कहूँगा

सुना है हुनर को हुनर काटता है

ये फिरका-परसती ये नफरत की आंधी

पड़ोसी, पड़ोसी का सर काटता है

5 comments:

Arshia Ali ने कहा…

सफर लम्बा हो जाए तो फिर वह सफर नहीं रहता जी का जंजाल बन जाता है। इस भाव को गजल में बखूबी बयां किया गया है।
धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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अजय कुमार ने कहा…

ये फिरका-परसती ये नफरत की आंधी पड़ोसी, पड़ोसी का सर काटता है

kroor sachchayi

मनोज कुमार ने कहा…

ये माँ की दुआएं हिफाज़त करेंगी
ये ताबीज़ सब की नज़र काटता है
आपकी रचना में भाषा का ऐसा रूप मिलता है कि वह हृदयगम्य हो गई है।

रचना गौड़ ’भारती’ ने कहा…

बात हुनर को हुनर काटता है सही लगी। दीप की ज्योति सा ओज आपके जीवन में बना रहे इस कामना के साथ दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। आपकी बुद्धि में गणेश की छाया,घर में लक्ष्मी की माया और कलम में सरस्वती का वास रहे।
*Happy Deepavali*

निर्झर'नीर ने कहा…

ये फिरका-परसती ये नफरत की आंधी
पड़ोसी, पड़ोसी का सर काटता है

bejod.