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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

स्वप्न .यह धरती का है -----------(किशोर कुमार)

स्वप्न .यह धरती का है .
.

-गोल धरती ....
जैसे पानी की एक बूंद ...
उसके सपनों के महासागर से उछलकर ..
मछली की तरह मै ....
कहां जा पाता हू बाहर ......



-लौट आता हू ....
.शहर से गाँव ..
.गाँव में अपने घर आंगन ....



-फ़िर विचारो के जलाशय में ....
डूबे हुवे मन को ..
.ढूडने के लिए बैठा रहता हूँ ...
.बिछा कर एक जाल......



-स्वप्न यह धरती का है ....
पर डूबा रहता हूँ मै ...
कभी ..
.किसी के कश् में धुंवो सा छितरा कर अदृश्य हो जाता हूँ .....
कभी



..गरीब -फुटपाथ के किनारे सिक्को सा उछल जाता हूँ ..

..


-और फ़िर चढ़ने -उतरने के दर्द को पग-dndiyo सा ..
.पहाडे की तरह रटता हूँ मै ....
या
काँटों को फूल समझ कर
चलते पांवो को छालो सा -जीता हूँ मै ...



-मेरे स्वप्न में धरती ..कभी ..एक गोल हवाई झुला है .
.जहाँ से कूदना मना है ...
.मेरे स्वप्न में धरती -कभी -बदनाम पालीथीन से बनी
..अन्तरिक्ष के शहर में भटकती ...
हवा से भरी एक झिल्ली है ..
.जिसे छूना मना है ......



लेकिन क्या सचमुच में
मेरे स्वप्न में धरती -माटी के सत्य से निर्मित .....
.आकाश की थाल में प्रज्वलित .
.एक दिया है ..
.जिसमे जलती बा ती ने ..
.केवल प्रेम के अमृत को पिया है .................



लेकिन मेरे स्वप्न भी तो ..आख़िर धरती के ही है .........



-इसलिए ,....
.क्या धरती भी किसी का सपना है ...?

6 comments:

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत रचना।

मनोज कुमार ने कहा…

आपकी कविता पढ़ने पर ऐसा लगा कि आप बहुत सूक्ष्मता से एक अलग धरातल पर चीज़ों को देखते हैं।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

-लौट आता हू ....
.शहर से गाँव ..
.गाँव में अपने घर आंगन ....kyonki wahin hai apni jaden,apna bachpan,apni masumiyat
bahut hi achhi rachna

खोरेन्द्र ने कहा…

रश्मि प्रभा...
ji dhnyvaad

खोरेन्द्र ने कहा…

Mithilesh dubey

ji

dhnyvaad

खोरेन्द्र ने कहा…

MANOJ KUMAR
ji

dhnyvaad