-क्या
मै
ठीक ठीक व्ही हू
जो मै होना चाहता था
या
हो गया हू वही
जो मै होना चाहता हू
काई को हटाते ही
जल सा स्वच्छ
किरणों से भरा उज्जवल
या
बूंदों से नम ,हवा मे बसी
मिट्टी की सुगंध
या -सागौन के पत्तो से ..आच्छादित -भरा-भरा सा सुना हरा वन
-मै योगीक हू
अखंड ,अविरल ,-प्रवाह हू
लेकीन
तुम्हें याद करते ही -
जुदाई मे .....
टीलो की तरह
रेगिस्तान मे भटकता हुवा
नजर आता हू
नमक की तरह पसीने से तर हो जाता हू
स्वं को कभी
चिता मे ...
चन्दन सा -जलता हुवा पाता हू - और टूटे हुवे मिश्रित संयोग सा
कोयले के टुकडो की तरह
यहाँ -वहां
स्वयम बिखर जाता हू -सर्वत्र
-लेकीन तुम्हारे प्यार की आंच से
तप्त लावे की तरह
बहता हुवा
मुझ स्वपन को
पुन: साकार होने मे
अपने बिखराव को समेटने मे
क्या बरसो लग जायेंगे ......
टहनियों पर उगे हरे रंग
या
पौधे मे खिले गुलाबी रंग
या
देह मे उभर आये -गेन्हुवा रंग
सबरंग
पता नही तुमसे
कब मिलकर
फ़ीर -थिरकेंगे मेरे अंग -अंग
8 comments:
बहुत ही खूबसूरत रचना।
बहुत सुन्दर गहरे भाव लिये कविता है बधाई
bahut hi acchi rachna
विरह के क्षणों में भी कवि का प्रकृति से साक्षात्कार दिलचस्प है।
Mithilesh dubey
ji shukriyaa
Nirmla Kapila
ji
shukriyaa
neeshoo
ji
shukriyaa
MANOJ KUMAR
ji shukriyaa
एक टिप्पणी भेजें