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शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

तुम्हें याद करते ही --------{किशोर कुमार खोरेन्द्र }

-क्या


मै


ठीक ठीक व्ही हू


जो मै होना चाहता था


या


हो गया हू वही


जो मै होना चाहता हू


काई को हटाते ही


जल सा स्वच्छ


किरणों से भरा उज्जवल


या


बूंदों से नम ,हवा मे बसी


मिट्टी की सुगंध


या -सागौन के पत्तो से ..आच्छादित -भरा-भरा सा सुना हरा वन






-मै योगीक हू


अखंड ,अविरल ,-प्रवाह हू


लेकीन


तुम्हें याद करते ही -


जुदाई मे .....


टीलो की तरह


रेगिस्तान मे भटकता हुवा


नजर आता हू


नमक की तरह पसीने से तर हो जाता हू


स्वं को कभी


चिता मे ...


चन्दन सा -जलता हुवा पाता हू - और टूटे हुवे मिश्रित संयोग सा


कोयले के टुकडो की तरह


यहाँ -वहां

स्वयम बिखर जाता हू -सर्वत्र





-लेकीन तुम्हारे प्यार की आंच से


तप्त लावे की तरह


बहता हुवा


मुझ स्वपन को


पुन: साकार होने मे


अपने बिखराव को समेटने मे


क्या बरसो लग जायेंगे ......


टहनियों पर उगे हरे रंग


या


पौधे मे खिले गुलाबी रंग


या


देह मे उभर आये -गेन्हुवा रंग


सबरंग


पता नही तुमसे


कब मिलकर


फ़ीर -थिरकेंगे मेरे अंग -अंग

8 comments:

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत रचना।

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुन्दर गहरे भाव लिये कविता है बधाई

Unknown ने कहा…

bahut hi acchi rachna

मनोज कुमार ने कहा…

विरह के क्षणों में भी कवि का प्रकृति से साक्षात्कार दिलचस्प है।

खोरेन्द्र ने कहा…

Mithilesh dubey

ji shukriyaa

खोरेन्द्र ने कहा…

Nirmla Kapila
ji

shukriyaa

खोरेन्द्र ने कहा…

neeshoo

ji

shukriyaa

खोरेन्द्र ने कहा…

MANOJ KUMAR

ji shukriyaa