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गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

समाज के लिए आवश्यक है "साहित्य" -------------(संतोष कुमार "प्यासा" )

साहित्य और समाज का सम्बन्ध तो आदिकाल से है , अगर गौर किया जाए तो हमें ज्ञात हो जाएगा की ये दोनों एक दुसरे के पूरक हैंअब हमें इस बात से अभिग्य होना है की साहित्य है क्या ?,


साहित्य शब्द की उतपत्ति "सहित" से हुई है ! सहित का भाव ही साहित्य कहलाता है ! (साहित्श्य भावा:साहित्य:) "सहित के दो अर्थ - साथ और हितकारी ( + हित =हितसहित) या कल्याणकारी ! यहाँ पर साथ से आशय - शब्द और अर्थों का साथ अर्थात सार्थक अर्थों का प्रयोग ! सार्थक अर्थों का प्रयोग तो ज्ञान विज्ञानं की शाखाएं भीकरती हैं तब फिर साहित्य की अपनी क्या विशेषता है यह बताने की आवश्यकता ही नहीं !
ज्ञान विज्ञानं का मुख्य अर्थ होता है मानव की भौतिक शुख सम्रद्धि एवं शुविधाओं का विधान कराना ! पर साहित्य का लक्ष्य तो मानव के अंत:करण का परिष्कार करतेहुए उसमे सदवृत्तियों का संचार करना है ! आनंद प्राप्त कराना यदि साहित्य की सफलता है तो , मानव-मन का उन्नयन उसकी सार्थकता है ! अत: गौर किया जाए तोयह स्पस्ट हो जाएगा की ज्ञान विज्ञानं की शाखाओं की अपेक्षा "साहित्य" समाज के लिए ज्यादा हितकारी है ! साहित्यकार अपनी रचना में समाज का चित्रण किसीचित्रकार की भांति निजी दृष्टी कोण से करता है ! साहित्यकार को ऐसा इसलिए करना पड़ता है क्युकी मानव जीवन खंड्स: ही उपलब्ध होता है , जो किसी को प्रभावितकरने में अक्षम रहता है ! साहित्यकार इन बिखरे जीवन खंडो को अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल पर क्रमबद्ध कर ऐसी समग्रता प्रदान करता है की सहृदय के मन परउसकी छाया सदा सर्वदा के लिए अंकित हो जाती है !


साहित्यकार का वैशिष्ट्य इसी में है की उसकी रचना की अनुभूति एकाकी होते हुए भी सार्वदेशिक-सार्वकालिक बन जाए तथा अपने युग की समस्याओं का समाधानप्रस्तुत करते हुए चिरंतन मानव मूल्यों से मण्डित भी हो ! उसकी रचना केवल अपने युग के अपितु आने वाले युगों के लिए भी नव स्फूर्ति का अजस्त्र स्त्रोत बन जाएऔर अपने देश काल की उपेक्षा करते हुए देश कालातीत होकर मानव मात्र की अक्षय निधि बन जाए साहित्यकार अपने समकालीन समाज से ही अपनी रचना केलिए आवश्यक सामग्री का चुनाव करता है , अत: समाज पर साहित्य का प्रभाव स्वभाविक है ! श्रेष्ठ साहित्यकार में एक ऐसी नैसर्गिग दैविक प्रतिभा होती है , एकऐसी अतल्स्पर्शिनि अन्तरदृष्टि होती है की वह विभिन्न द्रश्यों , घटनाओं व्यापारों या समस्याओं के मूल तक तत्क्षण पहुँच जाता है , जबकि राज्नितिग्य समाजशास्त्री अर्थशास्त्री उसका कारण बहर टटोलते रह जाते हैं !
मुंशी प्रेम चन्द्र जी ने कहा है कि -

"साहित्य राजनीती के आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है , राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं" !
यदि "साहित्य" द्वारा सामाजिक एवं राजनैतिक क्रांतियों को देखें तो विश्व इतिहास भरा पड़ा है !
आधुनिक युग में मुंशी प्रेम चन्द्र जी के उपन्यासों में कृषको पर जमींदारों के बर्बर अत्याचारों एवं महाजनों द्वारा उनके क्रूर शोषण के चित्रों ने समाज को जमींदारीउन्मूलन एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की स्थापना को प्रेरित किया ! तथा बंगाल में शरतचंद्र जी ने अपने उपन्याशों में कन्याओं के बाल विवाह की अमानवीयता एवंविधवा विवाह निषेध की न्रशंस्ता को ऐसी सशक्तता से उजागर किया की अंतत: बाल विवाह को कानून द्वारा निषिद्ध घोषित किया गया एवं विधवा विवाह का प्रचलनहुआ ! इस प्रकार सम्पूर्ण मानवता साहित्यकारों के अनंत उपकारों की ऋणी है ! साहत्य ने समाज का बहुत उपकार किया है !
अत: मै कहता हूँ की अब हमें एकजुट होकर साहित्य सर्जन में लग जाना चाहिए ! साहित्य का विकाश होगा तो समाज का विकाश होना स्वाभाविक है , मेरा मानना हैकी साहित्य समाज के लिए आवश्यक है , क्यूंकि समाज में व्याप्त दुर्गुणों से मुक्ति साहित्य के द्वारा ही मिल सकती है हम साहित्य का विकाश करके समाज को सशक्तएवं सम्रद्ध बना सकते है

5 comments:

Urmi ने कहा…

वाह बहुत बढ़िया लिखा है आपने! ये बात बिल्कुल सही है कि साहित्य और समाज दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं! बहुत ही अच्छी, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक जानकारी प्राप्त हुई आपके पोस्ट के दौरान! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

साहित्य समाज का दर्पण है यह समाज को दिशा भी प्रदान करता है . बढ़िया प्रस्तुति .

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

आज घर परिवार में जितने भी शब्‍दों, उद्बोधनों का हम प्रयोग करते हैं वे सब साहित्‍य की ही देन है। साहित्‍य है तो प्रेम है, सभ्‍यता है, संस्‍कृति है। हम साहित्‍य की कितनी भी उपेक्षा कर ले लेकिन यह हमारे जीवन का आवश्‍यक अंग है।

Unknown ने कहा…

"साहित्य समाज का दर्पण है" यह वक्तव्य तब सही होता है, जब साहित्य पूरे समाज से परिचित हो, और समाज साहित्य से.... मगर शब्दों को अपने हितों के और मोड़ा जाना साहित्य की दुर्गति है...मेरे हिसाब से हर शब्द का एक मतलब होना चाहिये जिसमें आप यदि अपनी अभिव्यक्ति रखते हैं तो वह समाज के लिए भी होना चाहिये..और यदि व्यक्तिगत भावना है जैसे प्रेम, वफ़ा.....तो ये कूड़ा स्वयं तक ही रहना चाहिये...क्यूंकि ऐसे लोग आलोचना से बहुत डरते हैं...पहले अभिव्यक्ति कहकर पढ़वाते हैं और फिर आलोचना करने पर कहते हैं कि मेरा भाव है..क्यूंकि सरकार ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई है जो समाज के सभी लोगो को शिक्षित करे....फिर साहित्य भी कुछ निम्नतम [जो शिक्षित हैं ] लोगों के लिए ही उपलब्ध होगा...उन निम्नतम के आधार पर हम साहित्य को समाज का दर्पण नहीं कह सकते...

Nishant kaushik

www.taaham.blogspot.com

Mithilesh dubey ने कहा…

सशक्त लेखन के लिए बधाई।