जब भी , जब भी, हर बार, रहा खामोश
दरख्तों पर बैठे पंछियों की तरह
मैंने चहचहाना चाहा ;
जब भी,
फूलों पर बैठे भंवरों की तरह
मैंने गुनगुना चाहा ;
बागों में खिलते फूलों की तरह
मैंने मुस्कुराना चाहा ; जब भी ,
इस शहर में रहने के लिए
मैंने इक आशियाना चाहा ;
जब भी,
एक पागल प्रेमी की तरह
मैंने उसे पाना चाहा ;
हर बार,हुआ मजबूर
हर बार, लौटा नाकाम
हर बार, पुछा गया
मुझसे मेरा मज़हब !!
शनिवार, 1 अगस्त 2009
मज़हब .......(जीत स्वप्न )
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2 comments:
मर्मस्पर्शी कविता. वाकई साम्प्रदायिकता हमारी रगों में खून बनकर प्रवाहित होने लगी है. प्रेम तक में हिन्दू-मुस्लिम छूत-अछूत देखे जाने लगे हैं. यह तेवर बने रहें. बधाई.
bahut khub sundar rachna
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