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शनिवार, 20 जून 2009

कोई अपना न निकला


समझा था सेहरा फूलों का जिसे,
वो ताज काँटों भरा निकला।
चला था जिस राह पर फूलों की,
वो सफर काँटों भरा निकला।

सहारा दिया समझ कर बेबस,
थामा था जिन हाथों को हमने।
घोंपने को पीठ में हमारी,
उन्हीं हाथों में खंजर छिपा निकला।

मिलेगा साथ हर मोड़ पर हमें,
सोच कर चले थे अनजानी राहें।
गिर पड़े एक ठोकर से जिसकी,
वो गिराने वाला हमारा अपना निकला।

मतलब की इस दुनिया में,
शिकायत गैरों से नहीं है हमें।
समझा था जिस-जिस को अपना,
वो हर शख्स ही बेगाना निकला।

चार दिन की इस जिन्दगानी में,
साथ किसी का रहता नहीं है।
पर ये दुखड़ा किससे कहें कि,
हमसे मुँह फेर हमारा साया निकला।

चलना है ताउम्र हमें अकेले अब,
तूफान तन्हाई व सूनेपन का समेटे।
जीवन के इस लम्बे सफर में,
कोई न हमसफर हमारा निकला।

7 comments:

jamos jhalla ने कहा…

akele nikal lo
lag milenge aur
kaarvaan jaroor
banjaavegaa|
angrezi.com
jhallikalamse
jhalligallan

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

सुन्दर रचना.

Arvind Gaurav ने कहा…

vaah ji vaah....bahut khoobsurat gazal pesh ki hai aapne

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

डॉ. कुमारेन्द्र जी,

आज के दौर का हकीकतनामा बयाँ करती हुई कविता कुछ अपने हाल सी लगी।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

निर्मला कपिला ने कहा…

bahut khoob badhai

निर्मला कपिला ने कहा…

bahut khoob badhai

Unknown ने कहा…

bahut khub