समझा था सेहरा फूलों का जिसे,
वो ताज काँटों भरा निकला।
चला था जिस राह पर फूलों की,
वो सफर काँटों भरा निकला।
सहारा दिया समझ कर बेबस,
थामा था जिन हाथों को हमने।
घोंपने को पीठ में हमारी,
उन्हीं हाथों में खंजर छिपा निकला।
मिलेगा साथ हर मोड़ पर हमें,
सोच कर चले थे अनजानी राहें।
गिर पड़े एक ठोकर से जिसकी,
वो गिराने वाला हमारा अपना निकला।
मतलब की इस दुनिया में,
शिकायत गैरों से नहीं है हमें।
समझा था जिस-जिस को अपना,
वो हर शख्स ही बेगाना निकला।
चार दिन की इस जिन्दगानी में,
साथ किसी का रहता नहीं है।
पर ये दुखड़ा किससे कहें कि,
हमसे मुँह फेर हमारा साया निकला।
चलना है ताउम्र हमें अकेले अब,
तूफान तन्हाई व सूनेपन का समेटे।
जीवन के इस लम्बे सफर में,
कोई न हमसफर हमारा निकला।
7 comments:
akele nikal lo
lag milenge aur
kaarvaan jaroor
banjaavegaa|
angrezi.com
jhallikalamse
jhalligallan
सुन्दर रचना.
vaah ji vaah....bahut khoobsurat gazal pesh ki hai aapne
डॉ. कुमारेन्द्र जी,
आज के दौर का हकीकतनामा बयाँ करती हुई कविता कुछ अपने हाल सी लगी।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
bahut khoob badhai
bahut khoob badhai
bahut khub
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