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बुधवार, 20 मई 2009

रिश्ते [एक कविता ] - निर्झर ' नीर '

लोग अक्सर मुझपे फिकरे कसते हैं
पडा रहता है टूटी खाट मैं
बुन क्यों नही लेता इसे फिर से
कैसे कहूँ क्यों नही बुन लेता ?
सोचता हूँ तो हाथ कांपने लगते है
ये खाट और रिश्ते मुझे एक से लगते हैं !

मैंने अपने हर नए रिश्ते की तरह
कितने शौक से बुना था हर ताना
कितने सुंदर लगते थे नए-नए !

जिंदगी में हर रिश्ता इस ताने जैसा ही हो गया
दोनों का जाने कौन सा ताना कब टूट गया
साथ-साथ रहते हुए भी मुझे पता ना चला
धीरे-धीरे एक-एक कर सारे ताने टूट गए !

रह गए कुछ टूटे रिश्ते और टूटे हुए ख्वाब
टूटी हुई खाट के टूटे हुए तानों की तरह !

उलझ गया हूँ इन टूटे हुए रिस्तो में
मैं अब फिर से नही बुनना चाहता
ना किसी रिश्ते को ना ही इस टूटी खाट को !!

6 comments:

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

निर्झर जी , आपका इस मंच पर बहुत बहुत स्वागत है ।

Mithilesh dubey ने कहा…

रिश्ते पर सुंदर कविता ।

निर्झर'नीर ने कहा…

हिंदी साहित्य मंच का आभारी हूँ जिसने मेरे भावों को प्रकाशित किया .

Mithilesh Dubey ji
आपने सराहा ये खुशनसीबी है मेरी

Unknown ने कहा…

निर्झर जी , आपकी यह कविता बहुत ही प्रभावशाली है । हमारे रिश्ते कुछ ऐसे ही होते हैं । बधाई

Unknown ने कहा…

sunder kavita

शिव शंकर ने कहा…

sunder kavita lagi aapki