बेटी की चिन्ता
जब वो तितली सी उडती
चिडिया सी चहकती
हिरणी सी भागती
मोरनी सी भागती
उसे देख
मन मे हलचल मच जाती
उसकी सुरक्षा की
चिन्ता सताती
क्योंकि
अब बच्चियां
शहर मे सुरक्षित नहीं हैं
नारी भक्षी दानव
हर गली चौराहे पर
मंडरा रहे हैं
अपनी हबस का शिकार
बना रहे हैं
सोचती हूँ भेज दूँ
इसे किसी जंगल मे
वहाँ न सडकें होंगी
नासडक पर मज़नू होंगे
वहाँ जानवरों मे रह कर
इतना तो सीख जायेगी
जानवर रूपी इन्सान से
अपनी रक्षा तो कर पायेगी!
वर्ना
शहर मे पढ लिख कर
तंदूर मे फेंक दी जायेगी
या दहेज की बली चढ जायेगी
बच भी गयी तो मेरी तरह
बेटी की चिन्ता मे मर जायेगी
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शनिवार, 11 अप्रैल 2009
कविता
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3 comments:
बहुत सुन्दर रचना . बधाई .
कपिला जी आपने रचना के माध्यम से कई सवाल खड़े किये , जिसके जवाब होते हुए आज सब आंख मूदे हैं ।
प्रश्न करती आपकी रचना लाजवाब बनी है कपिला जी । हमेशा की तरह ही सुन्दर अभिव्यक्ति । धन्यवाद
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