कब तलक यूँ ही मैं मरता रहूँ !!
सोच रहा हूँ कि अब मैं क्या करूँ
कुछ सोचता हुआ बस बैठा रहूँ !!
कुछ बातें हैं जो चुभती रहती हैं
रंगों के इस मौसम में क्या कहूँ !!
हवा में इक खामोशी-सी कैसी है
इस शोर में मैं किसे क्या कहूँ !!
मुझसे लिपटी हुई है सारी खुदाई
तू चाहे "गाफिल" तो कुछ कहूँ !!
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दूंढ़ रहा हूँ अपनी राधा,कहाँ हैं तू...
मुझको बुला ले ना वहाँ,जहाँ है तू !!
मैं किसकी तन्हाई में पागल हुआ हूँ
देखता हूँ जिधर भी मैं,वहाँ है तू !!
हाय रब्बा मुझको तू नज़र ना आए
जर्रे-जर्रे में तो है,पर कहाँ है तू !!
मैं जिसकी धून में खोया रहता हूँ
मुझमें गोया तू ही है,निहां है तू !!
"गाफिल"काहे गुमसुम-सा रहता है
मैं तुझमें ही हूँ,मुझमें ही छुपा है तू !!
4 comments:
प्रेम से निकली यह रचना वास्तविक सुन्दरता लिए हुए है । पहले की तरह आपकी बेहतरीन प्रस्तुति ।
बहुत खूब , भूतनाथ जी । बहुत ही सुन्दर रचना । शुभकामनाएं
bhoot nathji aap to sara jahan dekh sakte ho dhoond kyon nahi lete bahut sunder kavita ke liye badhai
भूतनाथ जी!
आपकी दोनों रचनाएँ सुन्दर हैं।
आपको बधायी और हिन्दी साहित्य मंच
को इनको प्रसारित करने के लिए धन्यवाद।
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